चंद्रशेखर आज़ाद जयंती: हुंकार भरी जब उसने इंकलाब के नारों से, दुश्मन कांप उठे, आज़ाद के 'आज़ाद विचारों' से

Chandrashekhar Azad birth anniversary : ​​When he shouted slogans of revolution, enemies trembled, with free thoughts of azaad, he was free and remains free!

आज एक ऐसे वीरपुरुष की जयंती है जिसे ज़िंदा पकड़ना नामुमकिन था। जी हां आज अमर सेनानी चंद्रशेखर आज़ाद की जयंती है। आज ही के दिन 23 जुलाई 1906 को चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म हुआ था। चंद्रशेखर आजाद उन चुनिंदा वीर पुरुषों में से हैं जिनका जन्म ही नही बल्कि उनकी मौत भी हमें प्रेरणा देती है। आज़ाद हमेशा आज़ाद ही रहे। उन्होंने कसम खायी थी कि आज़ाद ही मरेंगे और उन्होंने अपनी इस कसम को पूरा भी किया जब अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने की कोशिश की तो आज़ाद ने खुद को गोली मार दी। आज़ाद जब तक जिये आज़ाद ही रहे, उन्हें कोई कैद नही कर पाया। चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि 'दुश्मन की गोलियों का, हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे'। एक वक्त था जब उनके इस नारे को हर युवा रोज दोहराता था। वो जिस शान से मंच से बोलते थे, हजारों युवा उनके साथ जान लुटाने को तैयार हो जाते थे। उनकी जयंती पर कुछ खास बातें आपको बताते है।

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनका जन्म स्थान मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले का भाबरा में हुआ था, 1920 में 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े थे। देश की आजादी के लिए कुर्बानी देने वाले क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद जब पहली बार अंग्रेजों की कैद में आए तो उन्हें 15 कोड़ों की सजा दी गई थी। बचपन में आदिवासी इलाके में रहे इसलिए बचपन में ही उन्होंने निशानेबाजी सीख ली थी। इसीलिए उन की निशानेबाजी बचपन से बहुत अच्छी थी। सन् 1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो देश के कई नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोहभंग हो गया।उनके मन मे देश के प्रति भक्ति की लौ जल उठी थी, इसीलिए जब पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ का गठन किया। तो चन्द्रशेखर आज़ाद भी इस दल में शामिल हो गए।

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, लेकिन इसके बारे में बहुत ज्यादा जिक्र सुनने को नहीं मिलता। इसकी वजह यह है कि इतिहासकारों ने काकोरी कांड को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी। लेकिन यह कहना गलत नहीं होगा कि काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे। 1857 की क्रांति के बाद उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चापेकर बंधुओं द्वारा आर्यस्ट व रैंड की हत्या के साथ सैन्यवादी राष्ट्रवाद का जो दौर प्रारंभ हुआ, वह भारत के राष्ट्रीय फलक पर महात्मा गांधी के आगमन तक निर्विरोध जारी रहा, लेकिन फरवरी 1922 में चौरा-चौरी कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया, तब भारत के युवा वर्ग में जो निराशा उत्पन्न हुई उसका निराकरण काकोरी कांड ने ही किया था’।

9 अगस्त 1925 को क्रांतिकारियों ने काकोरी में एक ट्रेन में डकैती डाली थी। इसी घटना को ‘काकोरी कांड’ के नाम से जाना जाता है। क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था, ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके। काकोरी ट्रेन डकैती में खजाना लूटने वाले क्रांतिकारी देश के विख्यात क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन’ (एचआरए) के सदस्य थे। काकोरी षडयंत्र के संबंध में जब एचआरए दल की बैठक हुई तो अशफाक उल्लाह खां ने ट्रेन डकैती का विरोध करते हुए कहा, ‘इस डकैती से हम सरकार को चुनौती तो अवश्य दे देंगे, परंतु यहीं से पार्टी का अंत प्रारंभ हो जाएगा, क्योंकि दल इतना सुसंगठित और दृढ़ नहीं है इसलिए अभी सरकार से सीधा मोर्चा लेना ठीक नहीं होगा।’

लेकिन अंततः काकोरी में ट्रेन में डकैती डालने की योजना बहुमत से पास हो गई। इस ट्रेन डकैती में कुल 4601 रुपये लूटे गए थे। इस लूट का विवरण देते हुए लखनऊ के पुलिस कप्तान मि. इंग्लिश ने 11 अगस्त 1925 को कहा, ‘डकैत (क्रांतिकारी) खाकी कमीज और हाफ पैंट पहने हुए थे। उनकी संख्या 25 थी, यह सब पढ़े-लिखे लग रहे थे। पिस्तौल में जो कारतूस मिले थे, 47 दिन बाद यानी 26 सितंबर, 1925 को उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों पर छापे मारकर गिरफ़्तारियाँ की गईं। इनमें से चार लोगों को फ़ाँसी पर चढ़ा दिया गया, चार को कालापानी में उम्र क़ैद की सज़ा सुनाई गई और 17 लोगों को लंबी क़ैद की सज़ा सुनाई गई। सिर्फ़ चंद्रशेखर आज़ाद और कुंदन लाल ही पुलिस के हाथ नहीं लगे। कुछ महीने बीत जाने के बाद भी आज़ाद को ब्रिटिश पुलिस कभी जीवित नहीं पकड़ पाई। आखिर में उन्होंने अपना नारा आजाद है आजाद रहेंगे अर्थात न कभी पकड़े जाएंगे और न ब्रिटिश सरकार उन्हें फांसी दे सकेगी को याद किया,इस तरह उन्होंने 27 फ़रवरी 1931 को पिस्तौल की आखिरी गोली खुद को मार ली और मातृभूमि के लिए प्राणों की आहुति दे दी। उनके मृत शरीर से भी अंग्रेजों में खौफ पैदा हो गया था।