विश्व पर्यावरण दिवस स्पेशल:उत्तराखंड के जंगली जगत सिंह चौधरी को सैल्यूट तो बनता है,बंजर जमीन पर बना दिया हरा भरा जंगल,वृक्ष मित्र आर्यभट्ट पुरुस्कार से हो चुके है सम्मानित, वन विभाग के है ब्रांड एंबेसडर! जगत जंगली क्यों, पढ़िए ये दिलचस्प कहानी

World Environment Day Special: Junglee Jagat Singh Chaudhary of Uttarakhand gets salute, a green forest has been made on barren land, tree friend has been honored with Aryabhatta Award, is the brand

ये है 73 वर्षीय जंगली जगत सिंह! जी हां,जंगली जगत! इसी नाम से ये पूरे उत्तराखंड में प्रसिद्ध हैं।
आज विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर आपको जंगली जगत सिंह के बारे में बताते हैं।पर्यावरण दिवस पर इसीलिए क्योंकि पिछले 4 दशकों में जगत सिंह चौधरी ने एक ऐसे वन को विकसित कर दिया जिसमें देवदार, चीड़, बांज,और करीब 70 से भी ज़्यादा प्रजातियों के 5 लाख से भी ज़्यादा पेड़ लगाकर इतिहास रच दिया। उन्होंने अपनी 3 हैक्टेयर बंजर ज़मीन पर पूरा एक हरा भरा वन तैयार कर दिया और ये साबित कर दिया कि इंसान चाहे तो वो कुछ भी कर सकता है।

जगत सिंह चौधरी को उत्तराखंड के वन विभाग का ब्रांड अम्बेसडर चुना गया है और वह देश-दुनिया के हजारों लोगों से पर्यावरण से जुड़े विषयों पर अपने अनुभव को साझा कर चुके हैं।
जगत सिंह चौधरी उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के कोटमल्ला गांव के रहने वाले है। इन्हें इस वजह से भी सैल्यूट करना ज़रूरी हो जाता है क्योंकि पहले ये एक सैनिक रह चुके है। जगत सिंह गढ़वाल विश्वविद्यालय से बीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद, 1967 में बीएसएफ में चले गए और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भी हिस्सा लिया। तब वह बीएसएफ की 52वीं बटालियन में थे और उनकी तैनाती जम्मू-कश्मीर के बांदीपोरा में हुई थी।


साल 1974 में, एक बार वह छुट्टी पर घर आए थे। इसी दौरान उन्होंने देखा कि गांव की महिलाओं को जलावन और पशुओं के चारे के लिए, हर सुबह 8-10 किलोमीटर दूर जाना पड़ रहा है। महिलाओं की दुर्दशा इतनी खराब थी कि कई बार चारा काटने के चक्कर मे ऊंची पहाड़ियों से गिर कर उनकी मौत तक हो जाती थी। 


ये सब देखकर जगत ने सोचा अगर कुछ ऐसा हो जाये कि इन ग्रामीण महिलाओं को यही गांव के आसपास ही जलावन और चारा मिल जाये तो महिलाओं के साथ ऐसे हादसों पर रोक लग सकती है। इनका जीवन सुधर सकता है साथ ही पर्यावरण संरक्षण भी हो सकता है।


ये विचार जैसे ही उनके दिमाग मे आया उन्होंने बिना देर किए इस पर काम करना शुरू किया और अपनी बंजर पड़ी डेढ़ हैक्टेयर ज़मीन पर पौधे लगाने शुरू कर दिए। ये पूरी ज़मीन बिल्कुल बंजर थी यहां पानी की कोई भी व्यवस्था नही थी,ज़मीन पहाड़ी क्षेत्र में होने की वजह से ढलान में थी जिस कारण उपजाऊ मिट्टी बारिश के पानी मे बह जाती। अब जगत सिंह के सामने बंजर जमीन पर पेड़ उगाना एक बड़ी चुनौती थी। चुनौती तो थी लेकिन नामुमकिन नही। जगत सिंह पौधे लगाते गए। इधर उनका रिटायरमेंट भी होना था तो 1980 के बाद बीएसएफ से जब जगत रिटायर हुए तो वो सिविल लाइन में जॉब कर सकते थे लेकिन उन्होंने चुना बंजर जमीन पर पौधे उगाने का बड़ा चैलेंज। 
रिटायरमेंट के बाद उन्हें जो पैसे मिले, उन्होंने दिन रात कड़ी मेहनत कर वो सारे पैसे इसी मुहिम में लगा दिए। उन्होंने ग्रामीणों की मदद से बांध बनाना शुरू किया,जिससे ढलान में जो पानी बह जाता था उसे रोकने में मदद मिली। पेड़ पौधों को मवेशियों से बचाने के लिए जगत ने घेराबंदी शुरू की। 
इस मुहिम को जब दस साल हो गए तब इस जगह हरियाली ही हरियाली आ चुकी थी। ये सब जगत की कड़ी मेहनत और दृढ़ विश्वास  से ही मुमकिन हुआ। इस हरियाली को देखकर ग्रामीणों में भी जोश भरने लगा। उन्होंने भी इसी के आसपास अपने खेतों में पेड़ पौधे लगाने शुरू कर दिए।
उनका जंगल 3 हेक्टेयर से अधिक दायरे में फैला हुआ है, जिसमें पानी को जमा करने के लिए 200 से भी अधिक बांध बने हैं। उनके पास देवदार, कैल, काफल, बांज, थुनेर, चीड़ जैसे 70 से अधिक प्रजाति के पांच लाख से भी अधिक पेड़ हैं। इसके अलावा, उनके पास केसर, केदार पत्ती, इलायची, ब्राह्मी जैसे कई दुर्लभ प्रजाति के पौधे भी हैं।


73 वर्षीय जगत सिंह 3 बेटियों और एक बेटे के पिता हैं। उनका बेटा राघवेंद्र भी अपने पिता की ही राह पर है। इसे लेकर 29 वर्षीय राघवेंद्र कहते हैं, “मैं पिताजी के लगाए पेड़-पौधों के बीच खेलकर ही बड़ा हुआ हूं। इस वजह से मुझे बचपन से ही जंगलों से खास लगाव रहा है। यही कारण था कि गढ़वाल विश्वविद्यालय से 2014 में पर्यावरण विज्ञान से एमएससी करने के बाद, मैंने कहीं नौकरी के लिए कोशिश करने के बजाय अपने पिता के मुहिम को आगे बढ़ाने का फैसला किया।”

जगत सिंह चौधरी जंगली कैसे बने?

जगत सिंह को आज सब जंगली कहकर पुकारते है। इसके पीछे की वजह अब तक तो थोड़ा बहुत आप जान ही चुके है। आइये अब आपको इस जंगली के पीछे की एक और दिलचस्प कहानी बताते हैं। बात 1993 की है जब उन्हें गांव के ही एक स्कूल में पर्यावरण सम्बंधित एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था। पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में जगत सिंह के उत्कृष्ट कार्य की वजह से इस स्कूल में शिक्षकों और विद्यार्थियों ने उन्हें जंगली नाम की उपाधि दी। जंगली शब्द के पीछे शिक्षकों और विद्यार्थियों का भाव जंगल के प्रति जगत का प्रेम था,जबकि जगत के परिजनों को उन्हें जंगली कहना बिल्कुल पसंद नही आया। लेकिन जगत का जंगल के प्रति जो प्रेम था उसे स्कूल वालो ने समझा और आदरपूर्वक उन्हें ये उपाधि दी तो जगत ने भी खुशी खुशी ये स्वीकार कर ली।
जगत सिंह का जंगल आज स्थानीय रूढ़िया जनजाति के लिए आजीविका का साधन बन चुका है। यहां बड़े पैमाने पर रिंगाल मिलते है,जिसे आप हम सामान्य भाषा मे बौना बांस भी कहते है। रिंगाल की लम्बाई करीब 8 मीटर होती है। इसे रूढ़िया समुदाय के लोग टोकरी ,टी ट्रे, फैंसी आइटम,मैट्स इत्यादि बनाते है।रिंगाल इको फ्रेंडली होता है। 
जगत सिंह भविष्य में अपना एक ट्रेनिंग सेंटर शुरू करना चाहते हैं, ताकि अधिक से अधिक लोगों की बेहतर ढंग से मदद कर सकें। 

बीते चार दशकों के दौरान पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरुक करने के लिए उन्हें इंदिर गांधी वृक्ष मित्र पुरस्कार, आर्यभट्ट पुरस्कार जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। 
जगत सिंह कहते है कि आज सरकारी योजनाओं के तहत हर साल करोड़ों पेड़ लगाए जाते हैं, लेकिन देखभाल के अभाव में सार्थक नतीजे देखने के लिए नहीं मिल रहे हैं। इसलिए, सरकार भले ही पेड़ कम लगाए, लेकिन उसकी देखभाल अपने बच्चे की तरह हो, तो कहीं बेहतर परिणाम मिलेंगे।