इतिहास के पन्नो सेः जब वीर चंद्र सिंह गढ़वाली ने अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति को लगाया था पलीता! लिंक में पढ़ें पेशावर विद्रोह की दिलचस्प कहानी

From the pages of history: When Veer Chandra Singh Garhwali ruined the British policy of 'Divide and Rule'! Read the interesting story of Peshawar rebellion in the link

23 अप्रैल 1930 को चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में अंजाम दिए गए पेशावर विद्रोह को आज 93 वर्ष पूरे हो गए हैं। अंग्रेजी फौज में रहते हुए स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलाने से इंकार करने की इस घटना ने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई का एक नया मोर्चा खोल दिया था। इस घटना ने अंग्रेजों को इस कदर हिला कर रख दिया कि इन सिपाहियों पर जब कार्यवाही करने की नौबत आई तो अंग्रेजों ने 23 अप्रैल को आदेश नहीं मानने का मुकदमा उन पर नहीं चलाया, बल्कि 24 अप्रैल को हुक्म उदूली का मुकदमा चला कर इनका कोर्ट मार्शल कर दिया। दरअसल 23 अप्रैल को गोली चलवाने में असफल रहने के बाद अंग्रेजों ने कोशिश की, कि 24 अप्रैल को फिर गढ़वाल राइफल की इस टुकड़ी को पेशावर की सड़कों पर उतारा जाए। पर उस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई में इन सिपाहियों ने बैरकों से ही निकलने से इंकार कर दिया।

यह भारत के स्वाधीनता आंदोलन का एक गौरवशाली अध्याय है, जहां बेहद कम पढ़े-लिखे साधारण सिपाहियों ने अंग्रेजों की फूट डालो-राज करो की नीति को पलीता लगा दिया। गढ़वाली फौज को पेशावर में उतारा ही इसलिए गया था ताकि इसे हिन्दू-मुसलमान का मामला बनाया जा सके। खान अब्दुल गफ्फार खान के लाल कुर्ती दल का प्रदर्शन होना था और गढ़वाली फौज से गोली चलवाई जानी थी। इसे सीधे-सीधे साम्प्रदायिक विभाजन की खाई चौड़ी होती। पेशावर में गोली चलाने की भूमिका बनाते हुए अंग्रेज अफसर ने इन सिपाहियों को हिन्दू-मुसलमान के झगड़े की बात ही समझानी चाही। अंग्रेज अफसर ने कहा कि पेशावर में 94 फीसदी मुसलमान हैं, दो फीसदी हिंदू हैं। मुसलमान हिंदू की दुकानों को आग लगा देते हैं, लूट लेते हैं।

शायद हिन्दुओं को बचाने के लिये हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड़े। पर ये सिपाही भड़के नहीं, बल्कि अंग्रेज अफसर के जाते ही चन्द्र सिंह गढ़वाली सिंह ने अपने साथियों को समझाया। इसने जो बातें कही हैं सब झूठ हैं। हिंदू-मुसलमान के झगड़े में रत्ती भर सच्चाई नहीं है। न ये हिंदुओं का झगड़ा है न मुसलमानों का। झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का, जो कांग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिये। हमारे लिये गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें। पेशावर में गढ़वाल राइफल के इन सिपाहियों ने जो कारनाम को अंजाम दिया, उसने इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब को बुलन्द किया। अंग्रेजों द्वारा इन्हें मुसलमानों के खिलाफ घृणा के सिपाही में तब्दील करने की कोशिश को ध्वस्त कर दिया। आज चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके सैनिक साथियों के उस साहसिक कारनामे को याद करने की जरूरत है। इन सिपाहियों ने अंग्रेजों के द्वारा एक साम्प्रदायिक कांड रचने की कोशिश के खिलाफ खड़े हो कर उसे अंग्रेजी राज के खिलाफ एक बहादुराना विद्रोह में तब्दील कर दिया। 

पेशावर में गढ़वाली पल्टन द्वारा किया गया विद्रोह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, पेशावर विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली की जीवनी राहुल सांकृत्यायन ने लिखी। पेशावर में तैनाती से पहले ही 1922 के आस-पास चन्द्र सिंह आर्य समाज के निकट आ गये थे। आर्य समाज के प्रभाव में वह ऊंच-नीच, बलि प्रथा, फलित ज्योतिष आदि धार्मिक पाखंडों के विरोधी हो गये थे। आर्य समाज द्वारा किये गये देश भक्ति के प्रचार का भी उन पर प्रभाव था। पेशावर विद्रोह के लिये काले पानी की सजा पाने के बाद विभिन्न जेलों में यशपाल, शिव वर्मा, रमेश चंद्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्र सिंह गढ़वाली का साम्यवाद की ओर झुकाव हुआ।  

गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबंध की शर्त पर जब उनकी रिहाई हुई तो महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम सहित विभिन्न स्थानों पर रहते हुए वह बंबई स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में पहुंचे और विधिवत पार्टी सदस्य बने। वहां से रानीखेत में अकाल, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों पर उन्होने आंदोलन चलाया। गढ़वाल प्रवेश पर से प्रतिबंध हटने तथा अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी गढ़वाल में अकाल, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों की हड़ताल, सड़क, कोटद्वार के लिये दिल्ली से रेल का डिब्बा लगे ऐसे तमाम सवालों पर उन्होंने आंदोलन किए। कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर कामरेड नागेंद्र सकलानी टिहरी राजशाही के विरुद्ध लड़ाई तेज करने कीर्तिनगर पहुंचे। 

यहां 11 जनवरी 1948 को सकलानी के साथ ही मोलू भरदारी की भी शहादत हुई। मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सदस्य थे। इन दोनों शहीदों के मृत शरीरों को लेकर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में जनता नें टिहरी मार्च किया। ये शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अंतिम कील सिद्ध हुई। यानि 1930 में हुये पेशावर विद्रोह से लेकर 1979 में जीवन के अंतिम क्षण तक चंद्र सिंह गढ़वाली निरंतर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों में शामिल रहे। इसमें जेलों के भीतर की अव्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिये की जाने वाली भूख हड़तालें भी शामिल हैं। चन्द्र सिंह गढ़वाली पहली अक्टूबर, 1979 को दुनिया से रुखसत हो गए। चन्द्र सिंह गढ़वाली की स्मृति में 23 अप्रैल को पीठसैण में प्रतिवर्ष मेला लगता है। पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार करने के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े नायक के रूप में सामने आते हैं, जिन्होने अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति को पलीता लगा दिया था। कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़ा और जन संघर्षों से अंतिम समय तक जुड़े रहे। पेशावर विद्रोह की इस परम्परा को आज भी समझे जाने की जरूरत है। पेशावर विद्रोह के सिपाही अमर रहें। कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली व उनके लड़ाकू साथियों की चेतना जिंदाबाद...।