आवाज विशेषः वंदे मातरम के 150 वर्ष! राष्ट्रप्रेम का अमर गान
वंदे मातरम! ये दो शब्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा हैं। 7 नवंबर, 1875 को बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने अपने उपन्यास आनंदमठ में इस गीत को शामिल किया। आज 7 नवंबर, 2025 को यह गीत अपने 150 वर्ष पूरे कर रहा है। यह केवल एक गीत नहीं, बल्कि मातृभूमि के प्रति अटूट श्रद्धा का प्रतीक है। ब्रिटिश शासन के अत्याचारों के बीच यह गीत क्रांतिकारियों के लिए प्रेरणा बना। स्वतंत्र भारत में इसे राष्ट्रगान के समकक्ष सम्मान मिला। 150 वर्षों में इसने लाखों भारतीयों को जोड़ा, उन्हें एकजुट किया और राष्ट्रवाद की ज्योति जलाए रखी।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमिः 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। बंगाल में पुनर्जागरण चल रहा था, जहां बंकिमचंद्र जैसे साहित्यकार राष्ट्रप्रेम जगाने का कार्य कर रहे थे। 1882 में प्रकाशित आनंदमठ 1770 के सन्यासी विद्रोह पर आधारित था। उपन्यास में संन्यासी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध लड़ते हैं। वंदे मातरम गीत इसी संदर्भ में आता है, जहां संन्यासी मां भारत की जयकार करते हैं।
गीत की पहली पंक्तियांः वन्दे मातरम्। सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्...! यह संस्कृत और बंगाली का मिश्रण है। इसमें भारत को मां के रूप में चित्रित किया गया। सुजलां (जल से भरपूर), सुफलां (फलों से लदी), मलयजशीतलाम् (मलय पवन से शीतल)। बंकिमचंद्र ने देवी दुर्गा की छवि को मातृभूमि से जोड़ा, जो हिंदू धार्मिक भावनाओं को राष्ट्रवाद से जोड़ता है। 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया। इसके बाद यह स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बन गया। 1905 के बंग-भंग विरोध में यह नारा बना। क्रांतिकारी जैसे अरविंद घोष, भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस ने इसे अपनाया। ब्रिटिश सरकार ने इसे प्रतिबंधित किया, गाने वालों को जेल भेजा। फिर भी, यह भूमिगत रूप से गूंजता रहा।
रचना और संरचनाः वंदे मातरम मूलतः दो स्त्रोतों में है। पहला भाग मां की स्तुति है, दूसरा भाग युद्ध का आह्वान। बंकिमचंद्र ने इसे संस्कृत छंदों में लिखा, जो वैदिक परंपरा से प्रेरित है। राग देश में गाया जाने वाला यह गीत सरल लेकिन ओजपूर्ण है। जादुनाथ भट्टाचार्य ने इसे संगीतबद्ध किया। बाद में एआर रहमान ने 1997 में अपनी एल्बम वंदे मातरम में नया रूप दिया, जो युवाओं में लोकप्रिय हुआ। गीत की भाषा समृद्ध है! सप्तकोटि कंठ (सत्तर करोड़ गलों की ध्वनि), द्विसप्तकोटि बाहु (चौदह करोड़ भुजाएं)! जो तत्कालीन जनसंख्या को दर्शाती है। यह भारत की विविधता और शक्ति का प्रतीक है।
स्वतंत्रता संग्राम में भूमिकाः वंदे मातरम ने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा और भारत छोड़ो आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 के दशक में गांधीजी ने इसे अपनाया, हालांकि मुस्लिम लीग ने धार्मिक छवि पर आपत्ति जताई। जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में प्रस्ताव रखा कि जन-गण-मन राष्ट्रगान बने, लेकिन वंदे मातरम को राष्ट्रगीत का दर्जा मिले। 24 जनवरी, 1950 को इसे आधिकारिक मान्यता मिली। केवल पहले दो स्त्रोत गाए जाते हैं, जो धर्मनिरपेक्ष हैं। मदनलाल धिंगरा, खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारी फांसी पर चढ़ते समय इसे गाते थे। लाला लाजपत राय के जनाजे में लाखों ने इसे दोहराया। विदेशों में प्रवासी भारतीयों ने इसे गाकर समर्थन जुटाया।
सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभावः 150 वर्षों में वंदे मातरम फिल्मों, नाटकों और साहित्य में अमर हो गया। आनंदमठ पर बनी फिल्मों में यह प्रमुख है। स्कूलों में प्रार्थना सभाओं का हिस्सा, खेल आयोजनों में गूंजता। 1992 में भारत.पाक क्रिकेट मैच में इसे गाने पर विवाद हुआ, लेकिन यह राष्ट्रप्रेम का प्रतीक बना रहा। आधुनिक समय में सोशल मीडिया पर रुटंदकमडंजंतंउ ट्रेंड करता है। पुलवामा हमले के बाद सैनिकों ने इसे गाया। कोविड महामारी में डॉक्टरों ने मातृभूमि सेवा का संकल्प लिया। यह हिंदू-मुस्लिम एकता का भी प्रतीक है, क्योंकि कई मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानी जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इसे अपनाया।
वर्तमान संदर्भ और चुनौतियांः आज 2025 में भारत विकसित राष्ट्र की ओर अग्रसर है। वंदे मातरम नई पीढ़ी को प्रेरित करता है। सरकार ने 150वीं वर्षगांठ पर डाक टिकट, सिक्के और कार्यक्रम आयोजित किए। स्कूलों में निबंध प्रतियोगिताएं, सांस्कृतिक कार्यक्रम हो रहे हैं। फिर भी चुनौतियां हैं। कुछ लोग इसे सांप्रदायिक मानते हैं, लेकिन इतिहास गवाह है कि यह समावेशी है। सुबहानी बेगम जैसे मुस्लिम महिलाओं ने इसे गाया। वैश्वीकरण में युवा इसे भूल रहे हैं, इसलिए डिजिटल माध्यमों से प्रचार जरूरी है। वंदे मातरम के 150 वर्ष भारत की यात्रा का दर्पण हैं। गुलामी से स्वतंत्रता, संघर्ष से समृद्धि। यह गीत हमें याद दिलाता है कि मातृभूमि सर्वोपरि है। आने वाले वर्षों में यह नई ऊंचाइयों को छुएगा। वंदे मातरम!