आवाज विश्लेषणः 2014 की ‘लाल आंख’ से लेकर 2025 के एससीओ शिखर सम्मेलन तक! क्या मोदी-जिनपिंग रिश्तों की नई पहल संभाल पाएगी अर्थव्यवस्था?

-सुनील मेहता-
2014 में जब नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार को चीन के प्रति ‘लाल आंख’ दिखाने की नसीहत दी थी, तब उनकी यह टिप्पणी भारतीय जनता के बीच राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बनी थी। उस समय विपक्षी नेता के रूप में मोदी ने यूपीए की कथित कमजोर विदेश नीति (विशेषकर चीन के साथ सीमा विवादों और आर्थिक निर्भरता) को लेकर आलोचना की थी। उनके इस बयान ने जनता में जोश भरा और 2014 के आम चुनावों में उनकी जीत का एक आधार बना। सत्ता में आने के बाद, उसी साल सितंबर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए। अहमदाबाद के साबरमती आश्रम में मोदी और जिनपिंग ने झूले पर बैठकर कूटनीतिक दोस्ती का संदेश दिया, जो वैश्विक मंच पर भारत-चीन संबंधों में नई शुरुआत का प्रतीक माना गया। लेकिन यह दोस्ती ज्यादा दिन नहीं टिकी। 2020 में गलवान घाटी में भारत-चीन सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई, जिसमें भारत के 20 जवान शहीद हुए, जबकि चीन ने अपने चार सैनिकों के मारे जाने की पुष्टि की। इस घटना ने दोनों देशों के रिश्तों को दशकों के निचले स्तर पर ला दिया। इसके बाद, 31 अगस्त 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन के लिए चीन पहुंचे। यह उनकी 2018 के बाद पहली चीन यात्रा है, जो गलवान झड़प के बाद दोनों देशों के बीच कूटनीतिक तनाव को कम करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है। इस यात्रा के दौरान मोदी और जिनपिंग की द्विपक्षीय बैठक ने वैश्विक सुर्खियां बटोरीं, खासकर तब जब अमेरिका ने भारत पर 50 प्रतिशत आयात शुल्क लगाया, जिसमें रूस से तेल खरीदने के लिए अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ शामिल है। यह टैरिफ भारत के लगभग 48 अरब डॉलर के निर्यात को प्रभावित करेगा, जिससे देश की अर्थव्यवस्था पर भारी दबाव पड़ रहा है। मोदी की इस यात्रा को कुछ विशेषज्ञ अमेरिका के टैरिफ युद्ध के जवाब में भारत की रणनीतिक कूटनीति मान रहे हैं।
अमेरिका के साथ बढ़ते व्यापारिक तनाव और भारत की रूस से तेल खरीद पर ट्रंप प्रशासन की आलोचना ने भारत को चीन के साथ संबंध सुधारने के लिए प्रेरित किया है। पिछले साल कजान में ब्रिक्स सम्मेलन के दौरान दोनों नेताओं की मुलाकात और सीमा पर सैनिकों की वापसी के बाद बनी सहमति ने इस दिशा में आधार तैयार किया। तियानजिन में मोदी ने जिनपिंग के साथ कैलाश मानसरोवर यात्रा की बहाली, सीधी उड़ानों और व्यापारिक सहयोग पर चर्चा की, जो दोनों देशों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत करने की दिशा में बड़ा कदम है। हालांकि, भारत की आर्थिक स्थिति इस समय चुनौतीपूर्ण है। 2017 के विमुद्रीकरण और 2018 के जीएसटी जैसे कदमों ने अर्थव्यवस्था को धीमा किया है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में 25 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी से बाहर निकले, लेकिन बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे जनता के बीच असंतोष का कारण बने हुए हैं। अमेरिका का टैरिफ भारत के छोटे कारोबारियों और किसानों पर भारी पड़ रहा है, जिसे मोदी सरकार ‘दबाव का सामना करने’ की बात कहकर टाल रही है। आलोचकों का मानना है कि मोदी की चीन यात्रा आर्थिक नाकामियों को छिपाने और घरेलू आलोचना से बचने का प्रयास है। विशेषज्ञ तान्वी मदान के अनुसार, भारत-चीन के बीच भरोसा अब भी कमजोर है, और यह यात्रा पूर्ण रीसेट की बजाय रणनीतिक संतुलन की कोशिश है। मोदी की इस यात्रा से भारत वैश्विक मंच पर अपनी स्वतंत्र विदेश नीति का संदेश देना चाहता है, लेकिन घरेलू मोर्चे पर आर्थिक चुनौतियां और अमेरिका के साथ तनाव उनकी छवि को प्रभावित कर रहे हैं। क्या यह कूटनीति भारत को आर्थिक स्थिरता दे पाएगी, या यह मात्र एक अस्थायी कदम है? यह सवाल जनता के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है। फिलहाल मोदी की चीन यात्रा को जहां सत्ता पक्ष कूटनीतिक जीत बता रहा है वहीं विपक्ष हमलावर है।