हिंदी दिवस विशेष: हम सबने मुरादाबाद के ककहरे से सीखी थी हिंदी! सब इंस्पेक्टर की परीक्षा में पूछा था मुरादाबाद की प्रसिद्ध चीज क्या? एक अभ्यर्थी ने राजकुमार का कायदा लिखकर चौंका दिया, जब 18 करोड़ प्रतियां बिकी ककहरे की
आज पूरा भारत हिंदी दिवस मना रहा है। हिंग्लिश के इस दौर में जब हम आधे शब्द हिंदी आधे इंग्लिश और उर्दू के साथ मिलीजुली भाषा के साथ बोलते या लिखते है तो वो हिंग्लिश जैसी कोई भाषा बन जाती है। हिंदी लिखने और बोलने में व्याकरण की आवश्यकता होती है। आपको याद भी है कि जब आप छोटे थे और स्कूल जाया करते थे तब आपने भी क ख ग घ सीखे होंगे। देशभर के लोगो ने जिस पुस्तक से वो स्वर व्यंजन सीखे वो पुस्तक कौन सी थी किसने लिखी थी आइये जानते है अमर उजाला की नीलम सिंह और दुष्यन्त शर्मा की इस दिलचस्प खोजी पत्रकारिता से।
दरअसल हम सब को यूपी के मुरादाबाद के रहने वाले मास्टर रामकुमार ने हिंदी सिखाई। जी हां वैसे तो हिंदी शब्द फ़ारसी भाषा से निकला है जिसका अर्थ सिंधु नदी की भूमि होता है। फारसियो द्वारा सिंधु नदी के किनारे बसे लोगो को हिंदू कहा जाता था, और वो जो भाषा बोलते थे उसे हिंदी कहा जाता था। हिंदी भाषा मे स्वर व्यंजन होते है। मुरादाबाद के ककहरे हिंदी सचित्र प्राइमर देशभर के स्कूलों में प्राइमरी के बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए प्रयोग में लायी जाती थी।
इस पुस्तक की लोकप्रियता इस कदर थी कि साल 1915 में इस पुस्तक की करीब 15 करोड़ प्रतियां देशभर में बिकी। तब इस पुस्तक का मूल्य मात्र एक पैसा था।वर्ष 1997 में इस पुस्तक को बंद कर दिया गया तब इसका मूल्य डेढ़ रुपया हो चुका था। आइये जानते है मुरादाबाद के मास्टर रामकुमार के बारे में जिनकी पुस्तक ककहरे हिंदी सचित्र प्राइमर इतनी लोकप्रिय हुई।
मंडी बास के जीलाल मोहल्ला निवासी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मास्टर रामकुमार ने अमरोहा गेट पर अपनी दस फीट चौड़ी और 20 फीट लंबी दुकान में लेटर प्रेस पर 24 पृष्ठों की काले पन्नों वाली इस किताब का प्रकाशन एक पैसे की कीमत में शुरू किया था। बाद में पुस्तक को ऑफसेट प्रिंटिंग प्रेस रामकुमार प्रेस एंड एलाइड इंडस्ट्रीज पर प्रकाशित किया जाता था। वर्ष 1997 में पुस्तक की कीमत डेढ़ रुपये थी। बेहद सरल ढंग से हिंदी के अक्षरों, मात्राओं का ज्ञान कराने और सबसे ज्यादा सस्ती होने के कारण देशभर से इसकी मांग आती थी।
मास्टर रामकुमार के 84 वर्षीय बेटे महेंद्र कुमार ने बताया कि भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार में काले-काले पन्नों वाली इस पतली सी पुस्तिका का योगदान हिंदी प्रसार को समर्पित किसी भी व्यक्ति या संस्था की तुलना में सबसे ज्यादा है। स्कूलों में भी पुस्तक पढ़ाई जाने लगी। जब किताब की आपूर्ति में परेशानी होने लगी तो बहुत से प्रकाशकों ने इस पुस्तक की हू-ब-हू नकल कर पुस्तकें प्रकाशित करना शुरू कर दिया था। दिल्ली, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब व अन्य प्रदेशों में किताब की आपूर्ति होती थी।
वर्ष 1951 में मुरादाबाद नगर में सब इंस्पेक्टर की परीक्षा थी। प्रतियोगियों से एक प्रश्न पूछा कि मुरादाबाद की सबसे प्रसिद्ध चीज क्या है। ज्यादातर अभ्यर्थियों ने कलई के बर्तन बताया, लेकिन एक अभ्यर्थी ने लिखा कि मास्टर रामकुमार का कायदा। इस जवाब से परीक्षक भी चकरा गया और जब उसने खोज शुरू की तो यह जवाब बिल्कुल सही मिला।
दीनदयाल नगर निवासी महेंद्र कुमार ने बताया कि उनके पिता मास्टर रामकुमार खुद उर्दू भाषा से पढ़े थे और फारसी भाषा के जानकार थे, लेकिन हिंदी का प्रचार-प्रसार और लोगों को अक्षर ज्ञान कराने के लिए पुस्तक का प्रकाशन किया था। उनके पिता का नौ सितंबर वर्ष 1962 को निधन हो गया था। परिवार में तीन पुत्र वीरेंद्र कुमार, सुरेंद्र कुमार (दोनों स्वर्गवासी) और महेंद्र कुमार हैं। उनके एक पोते की प्रिंटिंग प्रेस थी, जबकि दो पोते आशेंद्र कुमार सक्सेना अधिवक्ता और डॉ. स्वतंत्र अग्रवाल वरिष्ठ दंत रोग विशेषज्ञ व कोठीवाल डेंटल कॉलेज के प्राचार्य हैं।