नैनीताल:बैठकी होली से रंगों की होली तक कुमाऊं की अनूठी सांस्कृतिक विरासत,श्री रामसेवक सभा में ढाई महीने पहले शुरू हुई बैठकी होली
नैनीताल।
पौष मास के प्रथम रविवार को श्री रामसेवक सभा में पारंपरिक बैठकी होली के साथ कुमाऊं की प्रसिद्ध होली परंपरा का शुभारंभ हो गया।

इस अवसर पर रामसेवक सभा के पूर्व अध्यक्ष मुकेश जोशी ने कुमाऊं की सांस्कृतिक विरासत और होली की अनूठी परंपरा की जानकारी दी।

उन्होंने बताया कि पौष मास के पहले रविवार से निर्वाण की होली बैठक के रूप में प्रारंभ होती है, जो पूरी तरह भक्ति भाव पर आधारित होती है। इसके पश्चात बसंत पंचमी से श्रृंगार होली का शुभारंभ होता है। कुमाऊं में होली केवल रंगों का पर्व नहीं, बल्कि ऋतु परिवर्तन और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक भी है।

वही बैठकी होली के आयोजन में वर्षों से जहूर आलम का योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा है। वे न केवल इस परंपरा से निरंतर जुड़े हुए हैं, बल्कि बैठकी होली की आत्मा माने जाने वाले भक्ति और रागात्मक गायन को जीवंत बनाए रखने में भी सक्रिय भूमिका निभाते आ रहे हैं।

बैठकी होली में जहूर आलम की भूमिका केवल एक सहभागी कलाकार तक सीमित नहीं है, बल्कि वे इस परंपरा के संरक्षण, अनुशासन और मर्यादा को बनाए रखने में भी सहयोग करते हैं। उनकी उपस्थिति यह संदेश देती है कि बैठकी होली किसी एक वर्ग या समुदाय की नहीं, बल्कि साझी संस्कृति और सामूहिक विरासत की अभिव्यक्ति है।

उन्होंने इस मौके पर बताया कि कुमाऊं ऐसा क्षेत्र है, जहां रंगों की होली से लगभग ढाई महीने पूर्व ही होली गायन की परंपरा शुरू हो जाती है। यह विशिष्ट परंपरा सदियों से चली आ रही है और इसे तीन चरणों में मनाया जाता है। पहले चरण में बैठकी होली के माध्यम से विरह और भक्ति रस की होलियां गाई जाती हैं। दूसरे चरण में बसंत पंचमी के बाद होली गायन में श्रृंगार रस का समावेश होता है। वहीं, तीसरे चरण में महाशिवरात्रि से होली के टीके तक राधा-कृष्ण से जुड़ी छेड़छाड़ और ठिठोली से परिपूर्ण होलियों का गायन किया जाता है।
बता दें कि नैनीताल में बैठकी होली को संस्थागत रूप श्री रामसेवक सभा (स्थापना 1897) और सार्वजनिक रामलीला संस्थाओं के माध्यम से मिला। अंग्रेजी शासन काल में भी नैनीताल की सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने में बैठकी होली ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।नैनीताल की बैठकी होली केवल एक पर्व नहीं, बल्कि कुमाऊं की सदियों पुरानी सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और सामाजिक परंपरा का जीवंत प्रतीक है। इसकी जड़ें भक्तिकाल, शास्त्रीय संगीत और लोक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई हैं। तीन चरणों में होली मनाई जाती है जो निर्वाण (बैठकी) होली पौष मास से शुरू होती है,फिर श्रृंगार होली बसंत पंचमी से शुरू होती है,और फिर खड़ी होली जो कि महाशिवरात्रि के बाद आती है।