ब्रेकिंग:विपरीत परिस्थितियों में बनाया मुकाम पद्मश्री पद्मभूषण से हुए सम्मानित प्रो खड़क सिंह वाल्दिया हमेशा के लिए हो गए अमर

बहुत कम ही ऐसे लोग होते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी हार नही मानते,वक्त के आगे घुटने नही टेकते,थकते नही रुकते नही ऐसा ही एक नाम है प्रो खड़क सिंह वल्दिया का,जो आज हम सब को छोड़कर इस दुनिया से अलविदा कह गए लेकिन उनका नाम हमेशा इन वादियों में गूंजता रहेगा।
प्रो वाल्दिया भारत के प्रख्यात भूगर्भ शास्त्री,पद्मश्री, पद्मभूषण, पर्यावरणविद,और कुमाऊँ विवि के पूर्व कुलपति थे।आज के नौजवानों के लिए प्रेरणास्रोत प्रो वाल्दिया एक ऐसी शख्सियत थे जिनके बारे में अगर लिखना शुरू किया जाए तो कलम भी थक जाए पन्ने भी भर जाए लेकिन उनके उत्कृष्ट कार्यो का उल्लेख खत्म ना हो।
1965-66 में प्रो वाल्दिया ने अमेरिका के जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के पोस्ट डॉक्टरल का अध्ययन किया और इसके लिए उन्हें फुल ब्राइट स्कॉलरशिप भी मिली,1969 में लखनऊ विवि में प्रवक्ता रहे,1973 से 1995 तक प्रो वाल्दिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी में सीनियर साइंटिस्ट ऑफिसर रहे,1976 से 1976 तक कुमाऊँ विवि के विभिन्न पदों पर कार्यरत रहे,1981 में प्रो वाल्दिया कुमाऊँ विवि के कुलपति बने,1976 में उन्हें शांतिस्वरूप भटनागर पुरुस्कार से नवाजा गया,1977-78 में यूजीसी द्वारा राष्ट्रीय प्रवक्ता का सम्मान मिला,1997 में भारत सरकार द्वारा नेशनल मिनरल अवार्ड ऑफ एक्सीलेंस मिला,1983 में प्रो वाल्दिया प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य रहे,योजना आयोग की कई उप समितियों के भी सदस्य रहे।2007 में पद्मश्री और 2015 में पद्मभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया।
ऐसा कहा जाता है कि 1942 में जबप्रो वाल्दिया मूल रूप से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के थे पिछले काफी समय से वो कैंसर की बीमारी से जूझ रहे थे।प्रो वाल्दिया का उत्तराखंड से अपार प्रेम रहा,उन्होंने कुमाऊँ की भूगर्भीय संरचना का गूढ़ता के साथ अध्ययन किया था,उनके द्वारा प्रतिपादित टेक्टोनिक प्लेट थ्योरी को भारत ही नही बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मान्यता प्राप्त है,इसी थ्योरी को लेकर नैनीताल में सूखाताल से लेकर भीमताल तक जो नदी बहती है वो भूगर्भीय मूवमेंट के बाद नैनीझील में सिमट कर रह गयी ,प्रो वाल्दिया ने नैनीताल के बलियानाले को सबसे ज्यादा संवेदनशील क्षेत्र बताया था जोकि आज सच भी साबित हुआ द्वितीय विश्वयुद्ध हुआ तब जापान द्वारा रंगून पर भीषण बमबारी के धमाकों की वजह से उनके सुनने की शक्ति कमजोर हो गयी थी,लेकिन इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और श्रवण शक्ति कमजोर होने की उस चुनौती को स्वीकार करते हुए वो पूरी दुनिया को सुनाने समझाने निकल पड़े और इतिहास पर इतिहास रचते गए।