रामपुर तिराहा कांडः उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन का दर्दनाक अध्याय! 1 अक्टूबर की वो काली रात, जब हुई बर्बरता की हदें पार

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में कई ऐसी घटनाएं हुईं, जिनमें जनआंदोलन के साथ प्रशासनिक बर्बरता की छाया भी जुड़ी रही। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन का रामपुर तिराहा कांड भी ऐसा ही एक काला अध्याय है जिसे आज भी लोग विस्मृत नहीं कर पाए हैं। यह घटना 1 अक्टूबर 1994 की रात घटी थी, जब उत्तराखण्ड राज्य की मांग को लेकर शांतिपूर्ण ढंग से दिल्ली कूच कर रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने न केवल लाठीचार्ज किया, बल्कि गोलियां चलाईं और महिलाओं के साथ अमानवीय दुर्व्यवहार भी किया। यह घटना न सिर्फ उत्तराखण्ड, बल्कि पूरे देश को झकझोर देने वाली थी। बताया जाता है कि जब 1 अक्टूबर की रात राज्य आंदोलनकारी 24 बसों में सवार होकर 2 अक्टूबर को दिल्ली में प्रस्तावित रैली में शामिल होने के जा रहे थे। इसी दौरान गुरुकुल नारसन में आंदोलनकारियों को रोकने के लिए बैरिकेडिंग लगा दी गई, जिसे तोड़कर राज्य आंदोलनकारी आगे बढ़ने की जिद करने लगे। जिसके बाद शासन के निर्देश पर उन्हें मुजफ्फरनगर पुलिस ने रामपुर तिराहे पर रोकने की योजना बनाई। इस योजना के तहत इस पूरे इलाके को सील कर आंदोलनकारियों को रोक दिया गया। आंदोलनकारी दिल्ली जाने से रोके जाने पर नाराज हो गए। सभी ने सड़क पर नारेबाजी शुरू कर दी। साथ ही अचानक बीच में कहीं से पथराव शुरू हो गया, जिसमें मुजफ्फरनगर के तत्कालीन डीएम अनंत कुमार सिंह घायल हो गए। जिसके बाद यूपी पुलिस ने बर्बरता की सभी हदें पार करते हुए राज्य आंदोलनकारियों पर दौड़ा-दौड़ाकर लाठियों से पीटना शुरू कर दिया। वहीं लगभग ढाई सौ ज्यादा राज्य आंदोलनकारियों को हिरासत में भी ले लिया। इसी दौरान देर रात लगभग पौने तीन बजे यह सूचना आई कि 42 बसों में सवार होकर राज्य आंदोलनकारी दिल्ली की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे में यह खबर मिलते ही रामपुर तिराहे पर एक बार फिर भारी पुलिस बल तैनात कर दिया गया। इस बीच जैसे ही 42 बसों में सवार होकर राज्य आंदोलनकारी रामपुर तिराहे पर पहुंचे तो पुलिस और राज्य आंदोलनकारियों के बीच झड़प शुरू हो गई। इस दौरान आंदोलकारियों को रोकने के लिए यूपी पुलिस ने 24 राउंड फायरिंग की, जिसमें सात आंदोलनकारियों की जान चली गई। वहीं 17 राज्य आंदोलनकारी बुरी तरह घायल हो गए।
यूं तो उत्तराखण्ड राज्य की मांग 1970 के दशक से उठने लगी थी। पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़कों की समस्याएं विकराल रूप ले रही थीं। लोगों का मानना था कि अलग राज्य बने बिना इन समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। 1994 में यह आंदोलन अपने चरम पर पहुंच चुका था और हजारों की संख्या में आंदोलनकारी दिल्ली जाकर अपनी आवाज संसद तक पहुंचाना चाहते थे। 1 अक्तूबर की रात जब यह काफिला रामपुर तिराहे (मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश) पहुंचा, तो पुलिस ने आंदोलनकारियों को रोकने के लिए बेरहमी से कार्रवाई की। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार निहत्थे और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाई गईं। कई लोग मौके पर ही शहीद हो गए। महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार ने पूरे आंदोलन को एक नया मोड़ दे दिया। इस घटना ने आंदोलनकारियों के भीतर गुस्से और पीड़ा की ज्वाला भर दी। आंदोलन और तेज हुआ तथा इसने पूरे उत्तराखण्ड में जनाक्रोश को जन्म दिया। रामपुर तिराहा कांड केवल गोलीकांड या लाठीचार्ज तक सीमित नहीं था, बल्कि यह मानवाधिकारों का खुला उल्लंघन भी था। लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांग रखना जनता का संवैधानिक अधिकार है। लेकिन इस कांड में जिस तरह महिलाओं की अस्मिता से खेला गया और निहत्थे लोगों पर गोलियां चलाई गईं, उसने शासन और प्रशासन की संवेदनहीनता को उजागर कर दिया। इस घटना के बाद राज्य आंदोलन और व्यापक हो गया। देहरादून, मसूरी, नैनीताल से लेकर पौड़ी और पिथौरागढ़ तक हर गांव और शहर में आंदोलन की आग फैल गई। युवाओं, महिलाओं और बुजुर्गों ने आंदोलन की बागडोर संभाल ली। अंततः वर्षों के संघर्ष और बलिदान के बाद 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड देश का 27वां राज्य बना। आज रामपुर तिराहा कांड उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के शहीदों के अदम्य साहस और बलिदान का प्रतीक है। यह घटना हमें यह भी याद दिलाती है कि लोकतंत्र में जनता की आवाज को दबाने के बजाय उसे सुनना चाहिए। यह कांड केवल उत्तराखण्ड आंदोलन की त्रासदी नहीं, बल्कि लोकतंत्र के मूल्यों पर एक गहरा सवाल था। रामपुर तिराहे की शहादत ने साबित किया कि जब जनता अपने हक के लिए संगठित होती है, तो किसी भी दमनकारी शक्ति को अंततः झुकना पड़ता है। आज भी जब हम उत्तराखण्ड राज्य के विकास की चर्चा करते हैं, तो हमें उन शहीदों को याद करना चाहिए, जिनके बलिदान ने अलग राज्य के सपने को साकार किया।