बाल्दियाखान, नाथूआखान, बेलुआखान,भत्तरौजखान! उत्तराखंड में कई जगहों के आगे ‘खान’ और ‘आखन’ क्यों लगा है? जानिए इन स्थानीय शब्दों का असली अर्थ
उत्तराखंड सिर्फ अपनी प्राकृतिक सुंदरता, संस्कृति और लोक परंपराओं के लिए ही नहीं, बल्कि अपने अनोखे स्थान-नामों के लिए भी जाना जाता है। इनमें कई नाम ऐसे हैं जिनके आगे ‘खान’ या ‘आखन/आँखन’ जुड़ा होता है—जैसे नथुआखान, बेलुआखान, काफ़लिखान, भत्तरौंजखान, बल्दियाखान, कैलाखान, चीनाखान इत्यादि। अक्सर लोग इन नामों में ‘खान’ शब्द देखकर इसे किसी उपनाम या फ़ारसी/उर्दू शब्द से जोड़ देते हैं, जबकि उत्तराखंडी भाषाओं में इसका अर्थ बिल्कुल अलग है।
उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में काफलीखान, नथुवाखान, कफड़खान, हैड़ाखान, मंगलीखान, चीनाखान, कलिकाखान, महेशखान, कैलाखान, बल्दियाखान, ज्योलीखान, चमड़खान हैं तो वहीं इसी नाम को गढ़वाल में आकर खांद से रिप्लेस किया जाता है। गढ़वाल क्षेत्र में जड़ाऊ खांद और इस तरह से कुमाऊं का खान और गढ़वाल का खांद लगभग एक ही शब्द है जो कि एक ज्योग्राफिकल शब्द है। यह किसी खंड विशेष के लिए कहा जाता है। इसीलिए स्थानीय बोलियों में ‘खान’ का मतलब न तो सरदार होता है और न ही किसी समुदाय का उपनाम। कुमाऊँनी-गढ़वाली भाषा में ‘खान’ छोटी समतल जगह, खुला मैदान, चौराहे जैसा भाग या पहाड़ों के बीच थोड़ी सपाट भूमि। चूंकि पहाड़ी इलाकों में समतल स्थान कम मिलते हैं, ऐसे में लोग किसी गांव, बस्ती या क्षेत्र की पहचान इसी शब्द के साथ करने लगे। समय के साथ यह कई जगहों के नाम का स्थायी हिस्सा बन गया। उदाहरण के तौर पर बागेश्वर,नैनीताल, पिथौरागढ़, मुनस्यारी और चंपावत जिलों में कई स्थानों के नामों में ‘खान’ शब्द आम तौर पर देखने को मिलता है।
आखन / आँखन’ का क्या अर्थ है?
उत्तराखंड की विभिन्न बोलियों—कुमाऊँनी, गढ़वाली और भोटिया भाषाओं—में उपयोग होने वाला शब्द ‘आखन’ कई अर्थों में प्रयोग होता है। पहाड़ के कई गांवों-ढानों में ऊँचाई पर बनी उन स्थलों को ‘आखन’ कहा जाता है जहाँ से पूरे क्षेत्र को देखा जा सकता है। कुछ बोलियों में यह शब्द ‘आँकने’ या ‘अनुमान लगाने’ के अर्थ में भी प्रयोग किया जाता है। इसीलिए ‘आखन’ शब्द भी कई भू-स्थानिक नामों का हिस्सा बन गया। जैसे पहले बेलू आखन लिखा जाता था,बाद में ये दोनो शब्द मिलाकर बेलुआखान बन गया। बेलू + खान मिलाकर बेलुआखान बना। बेलू/ बेल फल से जुड़ा हुआ शब्द है जहाँ बेल के पेड़ अधिक संख्या में हों, या पुराने समय में बेल का जंगल रहा हो, उन क्षेत्रों को बेलू/बेलुआ कहा गया। भले ही वहां अब इस तरह का पेड़ न हो या ऐसी वनस्पति अब देखने को न मिलती हो लेकिन आज भी यहां बेलू शब्द से ही गांव को पहचाना जाता है । कई पहाड़ी गाँवों में पेड़-पौधों के आधार पर नाम रखे गए है।बुरांश, काफ़ली, किल्मोड़ा आदि उसी तरह बेलू भी एक वनस्पति आधारित नाम है।
बल्दिया और आखन मिलाकर बल्दियाखान बना। यह शब्द पुराने कुमाऊँनी शब्द “बल्द” से निकला है, जिसका अर्थ है उजली चट्टानें / चमकीली ढलानें / हल्की मटमैली मिट्टी वाली भूमि। बल्दिया का अर्थ चमकीली, उजली, पत्थरीली या हल्की रंग की भूमि वाला क्षेत्र होता है कुछ जगहों में इसे बल्द्या / बल्दिया बोला जाता है।
वहीं नथुआ और खान मिलाकर नथुआखान हो गया। यह स्थानीय कुल-नाम/व्यक्ति-नाम
पर आधारित शब्द है। पहाड़ में कई जगहों के नाम किसी पुराने परिवार, प्रतिष्ठित व्यक्ति या कुल/खानदान पर रखे जाते थे। नथूआ / नाथूआ शब्द कुमाऊँ में प्रचलित एक उपनाम/व्यक्ति-नाम रहा है। इसलिए नथुआखान का अर्थ है नथुआ परिवार/व्यक्ति की समतल बसासत वाली जगह।
इसी तरह भत्तरौजखान यह दो शब्दों से मिलकर बना है। भत्तरौंज और खान/खांद या खंड।“भट्ट” या “भत्त” और “रोंज/रौंज”।“भत्त / भट्ट”जो कि पहाड़ में एक पुराना ब्राह्मण उपनाम है। कुमाऊँनी में “रौंज” का अर्थ घना, झाड़ीदार, वन क्षेत्र जैसा होता है।इसलिए भत्तरौंज का आशय भट्ट परिवार का वन-आच्छादित/झाड़ीदार क्षेत्र है जो समय के साथ "भत्तरौंजखान" बन गया। कई स्थानों के नाम किसी प्रमुख ब्राह्मण परिवार के नाम पर पड़े हैं जैसे भट्टगांव, भट्टकोट आदि।
अब तो आप समझ गए होंगे कि उत्तराखंड में इन जगहों के नाम के आगे खान क्यों लगा है?उत्तराखंड के स्थानों के ये नाम केवल पहचान नहीं, बल्कि पहाड़ की संस्कृति, भाषा और भूगोल की कहानी भी बयां करते हैं। ‘खान’ और ‘आखन’ जैसे शब्द बताते हैं कि पहाड़ के लोग अपने आसपास की प्रकृति और स्थानों को किस तरह समझते और नाम देते आए हैं।
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