द्रौपदी मुर्मू से पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनने का सफर कांटो भरा रहा! दो जवान बेटों और पति को खोकर भी हिम्मत नहीं हारी! इनके जीवन से मिलेगा बहुत कुछ सीखने को, लिंक में पढ़ें द्रौपदी मुर्मू की मार्मिक कहानी

Draupadi Murmu's journey to becoming the first tribal woman President was full of thorns! Even after losing her two young sons and husband, she never gave up! There's much to learn from her life; rea

भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु इन दिनों उत्तराखंड के दौरे पर हैं, जहां उनकी उपस्थिति हर दिल को छू रही है। आज वो नैनीताल पहुंचेंगी और राजभवन की 125वीं वर्षगांठ के समारोह में शामिल होंगी। चार नवंबर को कैंची धाम में बाबा नीम करौली महाराज के दर्शन कर आशीर्वाद लेंगी और फिर कुमाऊं विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि बनकर युवा पीढ़ी को प्रेरणा देंगी। उनकी यह यात्रा सिर्फ एक राजकीय दौरा नहीं, बल्कि एक संथाल बेटी की संघर्षपूर्ण जीवन गाथा को दर्शाता है जो जंगलों से निकलकर राष्ट्र के सर्वोच्च पद तक पहुंची। उनकी कहानी हर उस व्यक्ति के लिए आंसू और उम्मीद की मिश्रित भावना जगाती है, जो जीवन की कठिनाइयों से जूझ रहा हो।

ओडिशा के मयूरभंज जिले के एक छोटे से संथाल गांव में 20 जून 1958 को जन्मी द्रौपदी मुर्मु का बचपन सादगी और परंपराओं से भरा था।एक इंटरव्यू में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू बताती हैं- ‘संथाली परिवार में बेटी का नाम दादी के नाम पर रखा जाता है, ताकि दादी के मरने पर भी उनका नाम जिंदा रहे। इसलिए मेरा एक नाम दुर्गी भी था, लेकिन ये नाम मेरे शिक्षक को पसंद नहीं था, तो उन्होंने मेरा नाम द्रौपदी रख दिया।उनके पिता बिरंची नारायण टुडू और दादा दोनों गांव के सरपंच रहे, जिनकी छांव में उन्होंने जीवन के पहले सबक सीखे। गांव में शुरुआती पढ़ाई के बाद द्रौपदी मुर्मु भुवनेश्वर जाकर रामा देवी वुमंस कॉलेज में ग्रेजुएशन करने वाली अपनी बस्ती की पहली लड़की बनीं।

ओडिशा के सीनियर जर्नलिस्ट संदीप साहू अपनी किताब ‘मैडम प्रेसिडेंट’ में लिखते हैं- ‘सत्तर के दशक की बात है। एक रोज जमकर बारिश हो रही थी। दूर-दूर तक सिर्फ पानी ही पानी नजर आ रहा था। स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक बासुदेव बेहरा स्कूल में छुट्टी घोषित करने के बारे में सोच रहे थे। उन्हें लग रहा था कि इतनी बारिश में कोई स्कूल नहीं आ पाएगा।

थोड़ी देर बाद उनकी नजर 7-8 साल की द्रौपदी पर पड़ी। वह पूरी तरह भीग गई थी, लेकिन उसने अपना बैग भीगने नहीं दिया था। बासुदेव ने पूछा- इतनी बारिश में तुम स्कूल कैसे आ गई? द्रौपदी ने जवाब दिया- ‘मैं नदी तैरकर आई हूं।’ उसका जज्बा देखकर बासुदेव और स्कूल के प्रिंसिपल दंग रह गए।

यह कदम न सिर्फ उनकी हिम्मत का प्रतीक था, बल्कि एक आदिवासी बेटी की सपनों की उड़ान भी थी। इसके बाद वो पढ़ाई पूरी कर सिंचाई और बिजली विभाग में क्लर्क बनीं, लेकिन दिल में कुछ बड़ा करने की आग सुलग रही थी। पति श्याम चरण मुर्मु से हुई लव मैरिज ने उन्हें सहारा दिया, और शादी के एक साल बाद बेटी का जन्म हुआ। एक रोज निमोनिया से बेटी की जान चली गई। ससुराल वाले उन पर लगातार नौकरी छोड़ने का दबाव बना रहे थे। आखिरकार उन्होंने ने सरकारी नौकरी छोड़ दी और पति के साथ रहने लगी।

इसी बीच द्रौपदी मुर्मु को तीन बच्चे हुए, दो बेटा और एक बेटी। कुछ साल बाद वो रायरंगपुर लौट आईं। धीरे-धीरे उनके बच्चे बड़े होते गए और स्कूल जाने लगे। अब द्रौपदी के पास खाली वक्त रहने लगा। रायरंगपुर में रहते हुए उन्हें 10 साल हो गए थे। इसके बाद उनकी राजनीति की ज़िंदगी 1997 में पार्षद चुनाव जीतकर शुरू हुई, जो कभी पीछे मुड़कर न देखने वाली यात्रा बन गई। हुआ यूं कि रायरंगपुर में पार्षद के चुनाव होने थे और BJP तब तक ओडिशा में अपनी पहचान नहीं बना पाई थी। वह वार्ड संख्या-2 के लिए एक उम्मीदवार तलाश रही थी। यह सीट महिलाओं के लिए आरक्षित थी। द्रौपदी, जिस संथाल समाज से आती हैं, उस सीट पर उस समाज का काफी प्रभाव था।

लिहाजा द्रौपदी, BJP के लिए सबसे मुफीद उम्मीदवार थीं। उन्हें सरकारी काम करने का अनुभव भी था। द्रौपदी चुनाव लड़ीं और जीत भी गईं। यहां से उनके राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई। बाद में द्रौपदी विधायक बनीं और ओडिशा सरकार में मंत्री भी। 2000 में ओडिशा सरकार में मंत्री बनीं, बीजेपी में विभिन्न पद संभाले, और 2015 में झारखंड की राज्यपाल। लेकिन यह सफलता आसान नहीं थी। आदिवासी होना, महिला होना, और गांव की रूढ़ियों से लड़ना, ये सब बंदिशें थीं जिन्हें पति के समर्थन और आसपास के प्यार से पार किया। मगर जीवन ने उन्हें सबसे काले दौर में धकेला। 

25 अक्टूबर 2010 की बात है। द्रौपदी के बड़े बेटे लक्ष्मण एक पार्टी से लौटे। वे भुवनेश्वर में अपने चाचा के साथ रहते थे। अगली सुबह बीमार हालत में लक्ष्मण को अस्पताल ले जाया गया, जहां उनकी मौत हो गई। तब लक्ष्मण की उम्र महज 25 साल थी। जवान बेटे की मौत से द्रौपदी टूट गईं, जीने की लालसा खत्म हो गई थी। वो घर से निकलना भूल गईं, लोगों से बात करनी बंद कर दीं,धीरे धीरे डिप्रेशन ने उन्हें घेर लिया, दो महीने तक नींद में रोती रहीं। ये ज़ख्म भरा भी नहीं था कि फिर 2013 में दूसरे बेटे सिपुन की भी एक सड़क हादसे में मौत हो गई और उधर मां भी चल बसी। जब सिपुन की मौत हुई तब उसकी पत्नी प्रेग्नेंट थीं। उनका गर्भपात हो गया। द्रौपदी के न चाहते हुए भी सिपुन की पत्नी को उनके परिवारवाले अपने साथ ले गए। द्रौपदी का घर खाली-खाली सा हो गया।

छोटे भाई और मां का एक महीने में चले जाना और 2014 में पति का साथ छूटना,पांच साल में दो बेटों, पति और करीबियों को खोकर वे पूरी तरह टूट गईं। इसके बाद उनके पास खोने को कुछ नहीं बचा था,उन्होंने घर भी दान कर स्कूल बना दिया,इतना ही नहीं उन्होंने अपनी आंखें दान करने का भी ऐलान कर दिया, मानो जैसे अपने जीवन को वो अब दूसरों के लिए समर्पित कर रही हों। अब परिवार में सिर्फ बेटी इतिश्री और दामाद गणेश हेम्ब्रम का सहारा ही बचा,जो फिलहाल ओडिशा में बैंक में काम करती हैं।

ऐसा बताया जाता है कि इन सब दर्द के अंधेरों से निकलने का एकमात्र सहारा बना ब्रह्मकुमारी संगठन, जिसने उन्हें आध्यात्मिक रोशनी दी। उन्होंने खुद एक बार कहा था कि अगर ब्रह्मकुमारी न होतीं, तो डिप्रेशन उन्हें निगल लेता। कुछ समय बाद द्रौपदी मुर्मु संस्था कार्यकर्ताओं के जोर देने पर सार्वजनिक जीवन में लौटीं, संस्था के कार्यक्रमों में हिस्सा लिया, बेटी को भी जुड़ने की सलाह दी। जिसके बाद वो अपनी सामाजिक जिंदगी में धीरे धीरे लौटने लगी।  

21 जून 2022 की बात है। द्रौपदी मुर्मू के निजी सहायक रहे बिकाश महांता ने मीडिया को कई बार बताया है कि उस रात करीब साढ़े आठ बज रहे थे। वो अपनी मेडिकल दुकान पर था। तभी एक फोन आया- द्रौपदी जी से बात कराइए। प्रधानमंत्री जी उनसे बात करना चाहते हैं।

उन्होंने कहा बस पांच मिनट दीजिए, वो फटाफट उनके घर पहुंचे एक हाथ से कान पर फोन लगाए,द्रौपदी जी रात का खाना खाकर सोने की तैयारी कर रही थीं। उन्होंने उन्हें फोन देते हुए कहा- प्रधानमंत्री जी आपसे बात करना चाहते हैं। फोन रखने के बाद द्रौपदी ने जो कहा वो इतिहास बन गया। उन्होंने कहा- ‘मुझे NDA की तरफ से राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया जा रहा है।" इसके बाद क्या हुआ ये सभी जानते हैं। द्रौपदी मुर्मु भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनी और रच दिया एक कभी न मिटने वाला इतिहास।
उनकी कहानी बताती है कि कितनी भी गहरी पीड़ा हो, आस्था और समर्थन से इंसान फिर खड़ा हो सकता है – एक संथाल मां की यह यात्रा न सिर्फ राष्ट्रपति भवन की शोभा है, बल्कि हर टूटे दिल के लिए उम्मीद की किरण।