गौरवशाली:300 चीनी सैनिकों को अकेले धराशायी करने वाले अमर वीर योद्धा जसवंत सिंह रावत को आज भी मिलता है प्रमोशन मंदिर में होती है उनकी पूजा

300 चीनी सैनिकों को अकेले धराशाही करने वाले भारत के वीर योद्धा और महावीर चक्र विजेता शहीद राइफल मैन जसवंत सिंह रावत की आज जयंती  है।उत्तराखंड का वीर पुत्र आज भी अमर हैं। ये बात उन दिनों की है जब उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड एक हुआ करते थे तब गढ़वाल के रहने वाले वीर योद्दा राइफल मैन जसवंत सिंह ने अकेले ही चाइना के तीन सौ सैनिकों को मार गिराया था।

पौड़ी जिले के ग्राम बांडयू में जसवंत सिंह 19 अगस्त 1960  को मात्र 19 वर्ष की आयु में सेना में भर्ती हुए। 14 सितंबर 1961 को ट्रेनिंग पूरी करने के बाद उन्होंने 1962 के भारत-चीन युद्ध लड़ा, 17 नवंबर 1962 को चौथी बटालियन की एक कंपनी नूरानांग ब्रिज की सुरक्षा के लिए तैनात हुई।1962 में चीन ने भारत को करारी शिकस्त दी थी,उस युद्ध में हमारे देश के कई जांबाजोंं ने अपने लहू से वीरगाथाये लिखी थी,उन्ही जांबाजों में से एक शहीद वीर योद्दा जसवंत सिंह भी थे जिनका नाम लेने पर न केवल भारतवासी बल्कि चीनी भी सम्मान से सिर झुका देते हैं। वो मोर्चे पर लड़े और ऐसे लड़े कि दुनिया हैरान रह गई।

अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में नूरांग में वीर योद्धा जसवंत सिंह ने 1962 में वो जंग लड़ी थी,युद्ध के आखिरी पड़ाव में चीनी सेना हर मोर्चे पर भारतीयों पर हावी हो रही थी भारतीय सेना ने नूरांग में तैनात गढ़वाल यूनिट की चौथी बटालियन को वापस बुलाने का आदेश दे दिया, पूरी बटालियन वापस लौट गई लेकिन जसवंत सिंह लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं नहीं लौटे। 

 जसवंत ने पहले त्रिलोक और गोपाल सिंह के साथ और फिर दो स्‍थानीय लड़कियों की मदद से चीनियों के साथ मोर्चा लेने की रणनीति तैयार की, जसवंत सिंह ने अलग अलग जगह पर राईफल तैनात कीं और कुछ इस तरह वो फायरिंग करते गए जैसे मानो उनके साथ बहुत सारे सैनिक वहां तैनात हो,जबकि उनके साथ केवल दो स्‍थानीय लड़कियां थीं, जिनके नाम थे, सेला और नूरा। चीनी परेशान हो गए और तीन दिन यानी 72 घंटे तक वो ये नहीं समझ पाए कि उनके साथ अकेले जसवंत सिंह मोर्चा लड़ा रहे हैं। तीन दिन बाद जसवंत सिंह को रसद आपूर्ति करने वाली नूरा को चीनियों ने पकड़ लिया, इसके बाद उनकी मदद कर रही दूसरी लड़की सेला पर चीनियों ने ग्रेनेड से हमला किया और वह शहीद हो गई, लेकिन वो जसवंत तक फिर भी नहीं पहुंच पाए क्योंकि वीर योद्धा जसवंत सिंह ने खुद को गोली मार ली थी। भारत माता का लाल नूरांग में शहीद हो गया था।


चीनी सैनिकों को जब पता चला कि उनके साथ तीन दिन से अकेले जसवंत सिंह लड़ रहे थे तो वो हैरान रह गए। चीनी सैनिक उनका सिर काटकर अपने देश ले गए। 20 अक्‍टूबर 1962 को संघर्ष विराम की घोषणा हुई। चीनी कमांडर ने जसवंत की बहादुरी की लोहा माना और सम्मान स्वरूप न केवल उनका कटा हुए सिर वापस लौटाया बल्कि कांसे की मूर्ती भी भेंट की।

जिस जगह पर जसवंत ने चीनियों के दांत खट्टे किए थे उस जगह पर एक मंदिर बना दिया गया है। इस मंदिर में चीन की ओर से दी गई कांसे की वो मूर्ति भी लगी है। उधर से गुजरने वाला हर जनरल और जवान वहां सिर झुकाने के बाद ही आगे बढ़ता है। स्थानीय नागरिक और नूरांग फॉल जाने वाले पर्यटक भी बाबा से आर्शीवाद लेने के लिए जाते है 

उनकी सेना की वर्दी हर रोज प्रेस होती है, हर रोज जूते पॉलिश किए जाते हैं,इतना ही नही उनका खाना भी हर रोज भेजा जाता है और वो देश की सीमा की सुरक्षा आज भी करते हैं। सेना के रजिस्टर में उनकी ड्यूटी की एंट्री आज भी होती है और उन्हे आज भी प्रमोशन मिलते हैं, प्रमोशन के बाद वो नायक बने फिर कैप्टन और अब मेजर जनरल के पद पर आ पहुंचे हैं,महावीर चक्र से सम्मानित भारत माँ के लाल जसवंत सिंह को आज बाबा जसवंत सिंह के नाम से भी जाना जाता है, एसा कहा जाता है कि अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले के जिस इलाके में जसवंत ने जंग लड़ी थी उस जगह वो आज भी ड्यूटी करते हैं और भूत प्रेत में यकीन न रखने वाली सेना और सरकार भी उनकी मौजूदगी को चुनौती देने का दम नहीं रखते। बाबा जसवंत सिंह का ये रुतबा सिर्फ भारत में नहीं बल्कि सीमा के उस पार चीन में भी है।उनके परिवार वाले जब ज़रूरत होती है, उनकी तरफ़ से छुट्टी की दर्खास्त देते हैं. जब छुट्टी मंज़ूर हो जाती है तो सेना के जवान उनके चित्र को पूरे सैनिक सम्मान के साथ उनके उत्तराखंड के पुश्तैनी गाँव ले जाते हैं और जब उनकी छुट्टी समाप्त हो जाती है तो उस चित्र को ससम्मान वापस उसके असली स्थान पर ले जाया जाता है.