कुमाऊं की हर सुहागिन की पहचान
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देवभूमी उत्तराखंड की पहचान यहां के पहाड़ों,भाषा,पहाड़ी भोजन,और यहां के परिधानों के बिना अधूरी है।पहाड़ों की संस्कृति, एक झलक में आपको यहां के परिधानों में देखने को मिल जाती है।हर राज्य का अपना अलग पहनावा होता है, जो उस राज्य की संस्कृति का परिचय देता है।आज हम आपको कुमाऊंनी समाज में महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले विशेष परिधान के बारे में बताते हैं,जो एक ओढ़नी है।कुमाऊंनी संस्कृति में कुमाऊंनी भाषा में इस ओढ़नी को पिछौड़ा कहते हैं।आपने अगर कभी भी किसी पहाड़ी शादी मे शिरकत की हो तो आपको याद होगा शादी में विवाहित महिलायें एक पीले रंग की चुनरी ओढ़े होंगी, जिसमें गोल गोल बिन्दू के आकार के डिजाइन बने होंगे।यहीं चुनरी तो कुमाऊं का बहुत ही खास परिधान होता है।कुमाऊं में कोई भी शुभ कार्य हो उस घर की महिलायें कितनी भी डिज़ाइनर साड़ियां क्यों न पहन लें, पर उन सबके साथ पिछौड़ा पहना उनके लिये जरूरी होता है।
कुमाऊंनी विवाह -दिल्ली
आजकल पिछौड़ों में भी अलग अलग डिजाइन आने लगे हैं,किसी पिछौड़ें में सूर्य,किसी में घंटी ,फूल,शंख,और साथ में स्वास्तिक का शुभ चिन्ह प्रिन्ट किया जाता है, पर ज्यादातर पिछौड़े एक ही रंग के और एक ही डिजाइन के होते है अंतर केवल उनके भार,चमक और उनमें लगे मोतियों इत्यादि का होता है।
लगभग तीन मीटर लंबा और सवा मीटर चौड़ा हल्दी के पीले रंग में पिछौड़ा बनाया जाता है, क्योंकि पीला रंग शुभ माना जाता है।हल्दी वैसे भी हमारे हिन्दू समाज में पवित्र मानी जाती है।जबकि लाल रंग सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है ,पिछौड़े मे लाल रंग के ही गोल गोल बिन्दू बनाये जाते हैं।
रंगोली का पिछौड़ा कुमाऊंनी परम्परा और पहाड़ की पहचान से जुड़ा है सारे शुभ कार्य जैसे गणेश पूजा,शादी,गृह प्रवेश,जनेऊ संस्कार,नामकरण संस्कार,या कोई भी तीज त्योहार हो पिछौड़ा सुहागिनों को पहनना अनिवार्य होता है।
हल्दी संस्कार।
कुंवारी लड़कियां पिछौड़ा नही पहनती है ,क्योंकि जब लड़की शादी के बंधन में बंधती है ,तब वर पक्ष की ओर से सुहाग की निशानी के तौर पर शादी के पवित्र बंधन में फेरों के वक्त लड़की को आशीर्वाद के रूप में पिछौड़ा दिया जाता है।पिछौड़े को पहनकर ही लड़की सात फेरे लेती है, इसलिये पिछौड़ा केवल सुहागिन औरते ही पहनती हैं।शादी के वक्त मंहगे से महंगे लंहगे को पहन कर भी पिछौड़े के बिना दुल्हन का श्रृंगार अधूरा माना जाता है।सदियों से कुमाऊंनी महिलायें विरासत में मिली इस परंम्परा को पूरी शिद्दत के साथ निभाती आ रही हैं।धीरे धीरे पारम्परिक पिछौड़ा अब गढ़वाल मे भी खूब पहना जा रहा है।अब पिछौड़ा पूरे उत्तराखंड की महिलाओं का पारम्परिक परिधान बन चुका है।
देश विदेश में भी कुमाऊंनी परम्परा के पिछौड़ें को खूब पसंद किया जा रहा है।अल्मोड़ा में आज भी पुराने तरीके से पिछौड़ों को बनाया जाता है।सफेद कपड़े को हल्दी के पानी में भिगोकर धूप में सूखाकर फिर लाल रंग जो कि हल्दी में निम्बू निचोड़कर और सुहागा डालकर तैयार किया जाता है ,उससे पिछौड़ें पर सिक्के को रंग मे डूबोकर गोल डिजाइन बनाया जाता है।मार्केट में आजकल फैशनेबल पिछौड़ें आ गये है ,जो हर तबके की महिलाओं को पसंद आते हैं ,क्योंकि रेडिमेट पिछौड़ों में गोटा,सीप,जरी के साथ साथ शिफाॅन ,जाॅर्जट सिल्क जैसै मटेरियल वाले पिछौड़े जो आने लगे हैं।पर आज भी हाथ से बने पारम्परिक पिछौड़ो ने अपना रूतबा बना कर रखा है।दिल्ली,मुंबई,लखनऊ और विदेशों में रहने वाले पहाड़ी और कुमाऊंनी परिवारों में पिछौड़ों की बिक्री खूब होती है। दिल्ली में रहने वाली कंचन बिष्ट का कहना है "आज हम भले ही मार्डन जमाने में जी रहे है,पर अपने संस्कारों को आज भी हम नहीं भूले हैं।पिछौड़ा हमारी पारम्परिक पहचान है, जिसे ओढ़ कर हर सुहागिन और भी ज्यादा खूबसूरत लगती है।

तू दिख्यांदी जन जुनियाली सची त्यारा सौ ऊ.....
जब हो दिन छुई रूपा की पहली त्यार नोऊ...
ओ त्यारा रूपी देखि के लोग जली गेनी....
बौल्या बणी गेनी.....
पिछौड़े पर बना पहाड़ी गीत भी आजकल बहुत लोकप्रिय हो रहा है।पिछौड़े पर बना ये गीत बताता है कि पिछौड़े के कितना महत्व है पूरे कुमाऊं भर में।पिछोड़ा तू रूठिए झन
तू म्येर सुहाग छै
शुभ काम काज में
म्येर भल भाग छै
पिछोड़ा तू रूठिए झन
तू म्येर सुहाग छै...!
तू म्येर दगड़ में
रंग रूपक निखार छै
सदा तू दगड़ रये
तू म्येर जीवन प्यार छै
शुभ काम काज में
म्येर भल भाग छै
पिछोड़ा तू रूठिए झन
तू म्येर सुहाग छै...!
मांग सिदूर सुहाग दस्तूर
तू म्येर सुहागक श्रृंगार छै
ईष्टदेवा सुखी धरिया
तू म्येर सुहागक आधार छै
शुभ काम काज में
म्येर भल भाग छै
पिछोड़ा तू रूठिए झन
तू म्येर सुहाग छै...!
ईश्वर रूपी पिछोड़ तू
म्येर सुहागक संग छै
दगड़ सदा बनै रये
तू म्येर शरीर अंग छै
शुभ काम काज में
म्येर भल भाग छै
पिछोड़ा तू रूठिए झन
तू म्येर सुहाग छै...!
ज़माना बदल जरूर गया है,पर हमारे पहाड़ आज भी अपनी धरोहर अपनी परम्परा को अपने संस्कारों में समेटे हुये हैं।आप भी अगर उत्तराखंड से हैं तो गर्व कीजिये अपने उत्तराखंडी होने पर।