ऊधम सिंह नगर में व्यवसाय की शिक्षा और शिक्षा का व्यापार

एक समय था जब हमारे विद्यालय के मुख्य द्वार पर लिखा होता था “शिक्षार्थ आइये” “सेवार्थ जाइए”, आज के तथाकथित विद्यालयों में इस पंक्ति के साथ साथ यह भाव भी लुप्त हो गया है।ऊधम सिंह नगर में बिना सरकारी मान्यता और संसाधन के ये विद्यालय अप्रशिक्षित अद्यापकों को लेकर किराये के भवनों में कक्षाएं चला रहे हैं और फिर भी ये विद्यालय विद्यार्थिओं के सर्वागीण विकास का दावा करते हैं। आज आवश्यकता है यह जानने की कि इन विद्यालयों से हमारी शिक्षा की गुणवत्ता किस स्तर पर जा रही है। क्या इन सभी के अंतर्मन में आज अचानक से सेवा का भाव इतना प्रचंड हो गया है जो आज इन विद्यालयों ने विद्यार्थिओं का भविष्य बनाने का संकल्प लिया है या फिर आज सरकारी विद्यालयों की कमी हो गयी है. संभवतया नहीं, आज जितना लाभ शिक्षा के क्षेत्र में है उतना कहीं और देखने को नहीं मिलता है और यही कारण है कि गैरसरकारी विद्यालयों में धन कमाने की होड़ लगी है. और बात जहाँ धनोपार्जन की आती है वहां पर शिक्षा को ताक पर रख दिया जाता है। आज व्यवसाय की शिक्षा देते देते विद्यालय शिक्षा का व्यवसाय करने लगे है और शिक्षा विभाग से संबंधित अधिकारियों की छत्रछाया में से इनका व्यवसाय खूब फल फूल रहा है।
हर माता पिता की यह इक्षा होती है की वो अपने बच्चो को बेहतर और गुणवत्ता परक शिक्षा दिलवाए और यही सोच कर माता पिता अपना पेट काट कर रूपये बचाते है लेकिन आज देश की शिक्षा पद्दति के साथ खिलवाड़ कर सरकार भारत के बुनियाद को हिलाने में लगी है और पूरा देश मूकदर्शक बन देख रहा है वही चाहे कोई गैर सरकारी संगठन हो या फिर छात्र संगठनो द्वारा भी इसके विरोध में मुह नहीं खोलना इन संगठनों पर प्रश्न चिन्ह खड़े करता है .वर्ष 1997 से ही शिक्षा का व्यापारी करण पुरे जोर शोर से चल रहा है और देखते देखते भारत शिक्षा के बड़े बाजार के रूप में उभर कर सामने आ गया देश के कोने कोने में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये संस्थानों में शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान ना देकर धन उगाही का माध्यम बन चुके शिक्षण संस्थानों में ना तो गुणवत्ता वाले शिक्षक ही नजर आते है और ना ही वो शिक्षा पद्दति जो भारत को दुनिया से अलग रखती थी आज इन शिक्षण संस्थानों में बड़े बड़े कमरे तो नजर आते है लेकिन गुणवत्ता परक शिक्षा जो छात्रो को मिलनी चाहिए वो नहीं मिल पाता .जब से शिक्षा छेत्र में विदेशी कंपनिया आई तब से ही मूल्यों में गिरावट आ गई आज देश में शिक्षा को भी एक व्यापर बना दिया गया है .कंपनियों के आकलन के मुताबिक अभी देश में उच्य शिक्षा का बाजार 30 बिलियन अमरीकन डालर ही जो की अगले 2014 तक बढ कर 44 बिलियन अमरीकन डालर तक पहुच जायेगा विदेशी कंपनिया भारत की उभरती अर्थ वेब्स्था को देख कर सिर्फ अपना लाभ देखने के लिए हिंदुस्तान में निवेश कर रही है ना की यहाँ के युवाओ की क्योकि अगले 2030 तक देश में युवाओ की आबादी बढ़ कर 220 मिलियन हो जाएगी और यह आबादी दुनिया में सबसे बड़ी आबादी होगी युवाओ की जिससे चीन भी पिचड जायेगा और युवाओ की एस बड़ी आबादी ( 220
मिलियन) को शिक्षा चाहए जिस बाजार को देख कर अभी से ये विदेशी शिक्षण संसथान भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देख रही है जिन्हें गुणवता की फ़िक्र नहीं उन्हें तो सिर्फ अपना लाभ चाहिए . अगर समय रहते इस पर विचार नहीं किया गया तो जिस भारतीय शिक्षा पद्दति की दुनिया लोहा मानती है उसे डुबाने में हमारा ही सबसे बड़ा हाथ होगा .
सबसे पहले व्यवसाय का प्रारंभ होता है दान से, जो कि विद्यालय प्रशाशन द्वारा अभिभावक अथवा परिजनों से विद्यार्थी के प्रवेश के समय विद्यालय के विकास हेतु तथाकथित दान के रूप में मांगी जाती है। यह राशि 20000 रुपये से लेकर 40000 रुपये तक की होती है जिसे नकद भुगतान करना होता है और जिसकी कोई रसीद नहीं दी जाती और लेखा-जोखा भी विद्यालय प्रशाशन तक ही गुप्त रखा जाता है। मांगी जाने वाली कोई भी वस्तु देने वाले के लिए दान हो सकती है किन्तु मांगने वाले के लिए मेरे अनुसार भीख होती है फिर इसको दान कहना कहाँ तक उचित है। फिर इसके पश्चात बात आती है स्कूल फीस की जो कि पहले ही आम आदमी के लिए जुटाना बहुत बड़ी बात है और जब उसमें आये दिन बाहर घुमाने के नाम पर होने वाले खर्चों को मनमाने ढंग से अभिभावक की जेब से निकाला जाता है तो एक माध्यम वर्गीय परिवार के लिए कठिन और निम्नवर्गीय परिवार के लिए असहनीय हो जाता है। विद्यालय के पहनावे के नाम पर भी विद्यालय के अन्दर ही कपड़ों का व्यापार होता है, कपड़ों और अन्य पाठ्य सामग्री को निम्न मूल्य पर खरीद कर अधिक मूल्य पर विधार्थियों को बेचा जाता है। ठीक यही पुस्तकों के साथ भी होता है। विद्यालय प्रशाशन द्वारा केवल उन्ही पुस्तकों को खरीदा जाता है जो उन्हें सस्ती पड़ती है। विद्यालयों को पुस्तकों की शब्दावली, पाठ्यक्रम अथवा लेखक से कोई लगाव नहीं है। इस प्रकार हर विद्यालय में अलग-अलग प्रकाशन की पुस्तकें चलायी जाती है। जो विद्यालयों द्वारा उच्च मूल्य पर बेचीं जाती हैं। महंगा होने के कारण इनको खरीदने के लिए अभिभावकों के माथे पर बल पड़ जाते हैं।
प्रतियोगिता में बने रहने के लिए विद्यालय के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने विद्यार्थियों के परीक्षा परिणाम को सबसे अच्छा दिखाए। इसके लिए वह अधिक से अधिक विद्यार्थिओं को उन्ही के अद्ध्यापको के घरों पर शिक्षण प्राप्त करने हेतु प्रेरित करता है जहाँ परीक्षा में जो प्रश्न पूछे जायेंगे उनके उत्तरों का रट्टा लगाया जाता है। इससे जो धन अध्यापक को विद्यालय में पढाने के लिए विद्यालय को देना पड़ता वह घर पर पढाने से सीधे अभिभावकों से मिल जाता है। इस प्रकार इसका लाभ अध्यापक तथा विद्यालय दोनों को पहुँचता है। अभिभावकों पर खर्च की दोहरी मार पड़ती है और बिना असली ज्ञान लिए रट्टा लगाने से विधार्थी को जीवन पर्यंत इसका भारी मूल्य चुकाना पड़ता है।
आज आवश्यकता है सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ कड़े कदम उठाने की और फिर से वही भारत बनाने की जिसे विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त था। जिसके विश्वविद्यालयों में पढने के लिए सम्पूर्ण विश्व से विधार्थी लालाहित रहते थे। आज जो यह शिक्षा की दुर्दशा हुई है उसका मुख्य कारण हमारी शिक्षा नीति का अक्षम होना है। शिक्षा नीति जो कुछ है भी उसका भी पालन नहीं किया जाता है इसके कारण नैतिक शिक्षा, हिंदी और हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति को शिक्षा के ठेकेदारों ने अंग्रेजी शिक्षा और पाश्चात्य संस्कृति के लिए कौडिओं के भाव बेच डाला है। जिससे भारत और उसके किशोरों का भविष्य अँधेरे की ओर जा रहा है। यदि अभी भी इसमें सुधार नहीं किया गया तो वह समय दूर नहीं जब भारत अपनी पहचान खो देगा और केवल एक इंडिया बन कर रह जाएगा।