उत्तराखंड: उत्तरायणी में बागेश्वर में लगे मेले की रौनक ही अलग होती है!त्रिवेणी की वजह से भगवान शिव की इस भूमि की मान्यता है तीर्थराज की

Uttarakhand: The beauty of the fair held in Bageshwar in Uttarayani is different! Because of Triveni, this land of Lord Shiva is recognized as the place of pilgrimage

यूँ तो मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के अवसर पर नदियों के किनारे जहाँ-तहाँ मेले लगते हैं, लेकिन उत्तरांचल तीर्थ बागेश्वर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली उतरैणी की रौनक ही कुछ अलग है ।

उत्तराखंड में बागेश्वर की मान्यता 'तीर्थराज' की है । भगवान शंकर की इस भूमि में सरयू और गोमती का भौतिक संगम होने के अतिरिक्त लुप्त सरस्वती का भी मानस मिलन है । नदियों की इस त्रिवेणी के कारण ही उत्तरांचलवासी बागेश्वर को
तीर्थराज प्रयाग के समकक्ष मानते आये हैं ।

बागेश्वर का कस्बा पुराने इतिहास और सुनहरे अतीत को संजोये हुए है । स्कन्द पुराण के मानस खण्ड में कूमचिल के विभिन्न स्थानों का विशद् वर्णन उपलब्ध होता है । बागेश्वर के गौरव का भी गुणगान किया गया है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार बागेश्वर शिव की लीला स्थली है । इसकी स्थापना भगवान शिव के गण चंडीस ने महादेव की इच्छानुसार 'दूसरी काशी' के रुप में की और बाद में शंकर-पार्वती ने अपना निवास बनाया । शिव की उपस्थिति में आकाश में स्वयंभू लिंग भी उत्पन्न हुआ जिसकी ॠषियों ने बागीश्वर रुप में अराधना की थी।

स्कन्दपुराण के ही अनुसार मार्कण्डेय ॠषि यहाँ तपस्यारत थे, ब्रह्मर्षि वशिष्ठ जब देवलोक से विष्णु की मानसपुत्री सरयू को लेकर आये तो सार्कण्डेय ॠषि के कारण सरयू को आगे बढ़ने से रुकना पड़ा । ॠषि की तपस्या भी भंग न हो और सरयू को भी मार्ग मिल जाये, इस आशय से पार्वती ने गाय और शिव ने व्याघ्र का रुप धारण किया और तपस्यारत ॠषि से सरयू को मार्ग दिलाया । कालान्तर व्याघ्रेश्वर ही बागेश्वर बन गया ।

विष्णु की मानस पुत्री सरयू का स्नान पापियों को मोक्ष और सद्गति प्रदान करने वाला है । सरयू पापनाशक है । यम मार्ग को रोकने वाली सरयू के जल का पान करने से सोमपान का फल और स्नान अश्वमेघ का फल प्रदान करता है । बागेश्वर तीर्थ में मृत्यु से प्राणी शिव को प्राप्त होता है । इस प्रकार सूर्य तीर्थ तथा अग्नि तीर्थ के बीच स्थित विश्वेश्वर ही बागेश्वर है । सरयू का निर्मल जल सतोगुणी फल देता है । नदी की दूसरी धारा गोमती है जो अम्बरीष मुनि के आश्रम में पालित नन्दनी गाय के सींगों के प्रहार से उत्पन्न हुई । इसके जल को तमोगुण की वृद्धि करने वाला माना गया है । सरस्वती यहाँ केवल आस्था है । भौतिक रुप से जलधारा कही दृष्टिगोचर नहीं होती ।

बागेश्वर के सुनहरे अतीत में ही उतरैणी का भी गौरवमय पृष्ठ है । प्राप्त प्रमाणों के आधार पर माना जाता है कि चंद वंशीय राजाओं के शासनकाल में ही माघ मेले की नींव पड़ी थी । बागेश्वर की समस्त भूमि का स्वामित्व था । भूमि से उत्पन्न उपज का एक बड़ा भाग मंदिरों का रख-रखाव में खर्च होता था ।

चंद राजाओं ने ऐतिहासिक बागनाथ मंदिर में पुजारी नियुक्त किये । तब शिव की इस भूमि में कन्यादान नहीं होता था ।

मेले की सांकृतिक और धार्मिक पृष्ठभूमि का स्वरुप संगम पर नहाने का था । मकर स्नान एक महीने का होते था । सरयू के तट को सरयू बगड़ कहा जाता है । सरयू बगड़ के आक-पास स्नानार्थी माघ स्नान के लिए छप्पर डालना प्रारंभ कर देते थे । दूर-दराज के लोग मोहर मार्ग के अभाव में स्नान और कुटुम्बियों से मिलने की लालसा में पैदल रास्ता लगते । बड़-बूढ़े बताते हैं कि महीनों पूर्व से कौतिक में चलने का क्रम शुरु होता । धीरे-धीरे स्वजनों से मिलने के आह्मलाद ने हुड़के का थाप को ऊँचा किया । फलस्वरुप लोकगीतों और नृत्य की महफिलें जमनें लगीं . हुड़के की थाप पर कमर लचकाना, हाथ में हाथ डाल स्वजनों के मिलने की खुशी से नृत्य-गीतों के बोल का क्रम मेले का अनिवार्य अंग बनता गया । लोगों को आज भी याद है उस समय मेले की रातें किस तरह समां बाँध देती थी । प्रकाश की व्यवस्था अलाव जलाकर होती । काँपती सर्द रातों में अलाव जलते ही ढोड़े, चांचरी, भगनौले, छपेली जैसे नृत्यों का अलाव के चारों ओर स्वयं ही विस्तार होता जाता । तब बागेश्वर ही मेले में नृत्य की महफिलों से सजता रहता । दानपुर और नाकुरु पट्टी की चांचली होती । नुमाइश खेत में रांग-बांग होता जिसमें दारमा लोग अपने यहाँ के गीत गाते । सबके अपने-अपने नियत स्थान थे । नाचने गाने का सिलसिला जो एक बार शुरु होता तो चिड़ियों के चहकने और सूर्योदय से पहले खत्म ही नहीं होता । परम्परागत गायकी में प्रश्नोत्तर करने वाले बैरिये भी न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठे हो जाते । काली कुमाऊँ, मुक्तेश्वर, रीठआगाड़, सोमेश्वर और कव्यूर के बैरिये झुटपूटा शुरु होने का ही जैसे इन्तजार करते । इनकी कहफिलें भी बस सूरज की किरणें ही उखाड़ पातीं । कौतिक आये लोगों की रात कब कट जाती मालूम ही नहीं पड़ता था ।


सोर्स:पंकज महर