पत्रकारिता दिवस - खींचों न कमानों को न तलवार निकालो ! जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो

खींचों न कमानों को न तलवार निकालो! जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। यह शेर लिखते वक़्त अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजों की हुकूमत के सामने  संसाधनविहीन शोषित हो रही के साथ अखबार की ताकत को बताया था जो अंग्रेजी क्रूर शासन से मुक्ति के लिए जागरूकता का कार्य कर रहा था। नेपोलियन ने कहा था कि चार विरोधी अखबारों की मारक क्षमता के आगे हजारों बंदूकों की ताकत बेकार है। वह वक़्त था जब समाचारपत्र किसी व्यक्ति या जनता के लिए कार्य कर रही निस्वार्थ संस्था अपने मेहनत और सीमित साधनों से निकलती थी पर आज या बड़े व्यवसायी की पूंजी और कोई समर्थित सियासी पार्टी की मालिकाना में काम करने लगी है । माखनलाल चतुर्वेदी ने कहा था- दुख है कि सारे प्रगतिवाद, क्रांतिवाद के न जाने किन-किन वादों के रहते हुए हमने अपनी इस महान कला को पूंजीपतियों के चरणों में अर्पित कर दिया है।अंग्रेजी सरकार से लोहा लेने वाली पत्रकारिता अब सरकारी विज्ञापनों का मोहताज हो गयी है। गण और तंत्र के बीच सवांद की कड़ी होने वाला पत्रकार अपनी विश्वसनीयता एवं वस्तुनिष्ठता खो रहा है। आज के दौर में एथिक्स, निष्पक्षता और ‘वाचडॉग’ का महत्व मीडिया पर होने वाले सेमिनार और चर्चाओं में ही सिमट कर रहा गया है। अब ‘अजेंडा सेटिंग थ्योरी’ के आधार पर न्यूज चलने लगी है।लगातार कम हो रही मीडिया की विश्वसनीयता और उसका गिरता स्तर गंभीर चिंता का विषय है। 


महज टीआरपी यानि टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट या टेलीविजन रेटिंग पर प्रोग्राम की खातिर इलैक्ट्रानिक मीडिया उलजुलूल खबरों को दिन व रात चलाए जा रखता है। अब उनकी मजबूरी ये है कि उनको चैनल चलाने के लिए स्पांसर चाहिए। और चैनल को स्पांसर व एडवरटीजमैंट तभी मिलेगी जब चैनल लोकप्रिय होगा।अब पत्रकारों को कार्य करने की स्वतंत्रता लगभग समाप्त हो गयी है। खबरें व्यावसायिक हो गयी है। अपने स्वार्थ के लिए यह किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं।हर चैनल हर न्यूज को सबसे पहले दिखाना चाहता है इसी तेजी के चक्कर में यह नहीं देखता वह क्या दिखा रहा है।देश में सार्वजनिक बहस का स्तर लगातार गिर रहा है। इन बहसों में तर्क की जगह हल्ला ही दिखता है। चैनलों पर सार्थक बहस के बजाए शोर-शराबा ज्यादा होता है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की कोशिश होती है। ऐसे में सवाल ये है कि देश में सार्वजनिक बहस का स्तर कौन गिरा रहा है? आए दिन टीवी डिबेट के यह कार्यक्रम विवादों में आते रहते है। अब यह मजहबी नफ़रत और साम्प्रदायिकता के जहर को फ़ैलाने का काम ज्यादा कर रहे हैं। पार्टियों के प्रवक्ता चीख चीख कर बोलते हैं जैसे उनमें आत्मबल, आत्मविश्वास और ज्ञान की कमी होती है। वो ऊंची आवाज़ में बात करते हुए व्यक्तिगत आक्षेप से लेकर निचले स्तर की भाषा भी उपयोग करते हैं। एंकर अपनी टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में इस तरह की चीजों को और भड़काते हैं।बहस के दौरान कभी-कभी ऐसा लगता है कि एंकर खुद किसी दल-विशेष का प्रवक्ता बन रहा होता है। जबकि लोग शाम को प्राइम टाइम के समय किसी न्यूज़ चैनल की तरफ रुख करते है तो वे दिन के सबसे गंभीर मुद्दे पर एक विश्लेषणात्मक चर्चा की आशा रखते है। किसी भी सियासी पार्टी से ताल्लुक़ रखते हों, किसी भी दल का समर्थन करते हों, एक बात तो यक़ीनन मानते होंगे, कि राजनीति का स्तर गिरता जा रहा है। मर्यादित राजनीति के बजाय बेहूदा और असंसदीय आरोपों-बयानों का दौर चल रहा है। टीवी न्यूज चैनल भी इसका फायदा उठा रहे हैं। 


सबसे खतरनाक बात यह है कि टीवी न्यूज चैनलों में से अधिकांश संगठित ढ़ंग से साम्प्रदायिक ताकतों के मोहरे और प्रचारक की भूमिका में उतर आए हैं।नेताओं और उद्योगपतियों के अख़बारों की साँठ-गाँठ के चलते भारतीय पत्रकारों के मूल्यों की व्यापक गिरावट देखने को मिल रही है। इसके चार प्रमुख कारण हैं। पत्रकारों को मिले विशेष क़ानूनी संरक्षण का पतन। बर की बजाए मुनाफ़े को प्राथमिकता। समाचार संगठनों में उद्योगपतियों का निवेश। पत्रकारों के निजी स्वार्थ। अख़बार के पन्नों में समाचार की गुणवत्ता के बजाय विज्ञापन को प्राथमिकता मिलने लगी जिससे कॉरपोरेट सेक्टर की दखलदांजी बढ़ गईं। संपादक से अधिक अहमियत मार्केटिंग और सेल्स के मैनेजरों की होने लगी है। मनोरंजन, ग्लैमर, फ़ैशन, क्रिकेट के रंगीन परिशिष्ट अब प्रमुखता से छपने लगे हैं। टीवी चैनल तो कॉरपोरेट विज्ञापनदाता और सरकारी विज्ञापनों के मोहताज ही हैं। विज्ञापन खोने के भय से इनके सोच और प्रसारण में प्रभाव पड़ने लगा है। पत्रकार अब "मीडियाकर्मी" बनकर कार्य कर रहे हैं जिनका उत्तरदायित्व अख़बार की बिक्री या समाचार टीवी चैनल की रेटिंग बढ़ाना है। कहा जा रहा है कि हमारी मीडिया हमारी कमियों पर सवार होकर अपना बाजार बनाती है। और नफ़रत बेचने का कारोबार करती है। भारत पाकिस्तान के तनाव पर तो युद्ध और युद्ध की संभवानाएं नहीं, लेकिन कुछ देर अगर न्यूज़ चैनल देख लीजिए तो लगता है कि बस अभी युद्ध हुआ ही। ‘बदला...बदला’ की बहसों ने तो पूरा टीवी तक हिला दिया। बहसें एक नागरिक को जागरूक बनाने की बजाय भीतर से नफ़रती बनाने का काम करने लगी हैं। कुछ जानकार बता रहे हैं कि ये कारोबारी चैनल, मीडिया इस देश के भीतर लगातार दुश्मन की तलाश में है। अपने ही नागरिकों के बीच दुश्मन खोजते नज़र आ रहे हैं।पहले यही मीडिया आपको भूत-प्रेत की कहानियां परोसता था, अपराध की घटनाओं को सनसनी बनाकर बेचता था और अब यही आपको नफ़रत और युद्ध परोस रहा है। 


 आज के वक्त में किसी ईमानदार व सच्चे पत्रकार का कलम चलाना बेहद दूभर है। विशेषकर सोशल मीडिया के जमाने में तो यह तकरीबन नामुमकिन सा ही है। किसी ने खूब कहा है कि जो कलमें बिकतीं नहीं इस आला बाजार में, सरे राह बिकना पड़ता है उन पत्रकारों को बाजार में। किसी कवि के एक पंक्तियाँ मैंने पढ़ी थी सुना है कि अब मैं पत्रकार हो गया हूं ,ना समझ था पहले अब समझदार हो गया हूं। बहुत गुस्सा था इस व्यवस्था के खिलाफ ,अब उसी का भागीदार हो गया हूं। पत्रकारों के अलावा इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आम जनता तक पहुंचने के लिए सोशल मीडिया एक असरदार ज़रिए के रुप में उभरा है और कई लोग इसका भरपूर लाभ उठा रहे हैं। यह भी दिशा , मौसम और दृष्टिकोण बदलने में प्रभावी भूमिका निभा रहा है।भारत में फेक न्यूज की समस्या लगातार बढ़ रही है। फेसबुक और व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल गलत और झूठी सूचनाएं फैलाने के लिए धड़ल्ले से हो रहा है। अब लोग अखबार रेडियो और टेलिविजन पर निर्भर नहीं रहे। मौजूदा समय में हर व्यक्ति मीडिया हो गया है। सोशल मीडिया की वजह से हर व्यक्ति अपना संदेश सीधा दे सकता है, इसलिए हर व्यक्ति मीडिया है। 


लोकतंत्र सत्ता के विभाजन के सिद्धांत पर टिका है. इसमें कानून बनाने का काम निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का है, कानून की संवैधानिकता की जांच का अधिकार न्यायपालिका का है और कानूनों के पालन की जिम्मेदारी सरकारों की है। लोकतंत्र का चौथा पाया कहे जाने वाले मीडिया की जिम्मेदारी मुद्दों को सामने लाने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में योगदान देने और लोगों की भागीदारी को सुनिश्चित करने की है। लेकिन अब न्यूज़ मीडिआ पर उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कहीं उसे प्रेस्टिच्यूट कहकर बदनाम किया जा रहा है तो कहीं गोदी मीडिया कह कर। अब यह समझ लेना चाहिए की आवाज उठाने में और शोर मचाने में काफी फर्क होता है। मीडिया जगत जो खुद अपनी विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए प्रयास करने होंगे।














(पूनम शुक्ला की वॉल से)