कैसा वुमेन्स डे ? तुम्हारे लिए तो मैं आज भी अछूत हूँ ।

कैसा वुमन्स डे? जब मैं एक अछूत बन जाती हूँ तुम्हारे और तुम्हारे बनाये समाज के लिए ? ये सवाल आज हर औरत पूछना चाहती है ,लेकिन शर्म की वजह से कुछ महिलाएं बेझिझक बोल भी नही पाती । परंपरागत रूप से देखा जाए तो सदियों से भारत मे महिलाओं को उनकी माहवारी के वक्त अशुद्ध माना जाता है, भारत के कई राज्यो में आज भी माहवारी होने पर महिलाओं को अलग रहना पड़ता है, उस दौरान ना तो वो रसोई घर मे जा सकती हैं ना पूजा स्थल में और ना ही घर के अन्य लोगों को छू सकती हैं। ये कुरीति महिलाओं के मन पर कितना बुरा असर डालती है ये आप सोच भी नही सकते। अफसोस की बात तो ये है कि सदियों से इस बेतुकी परंपरा को निभाते निभाते कई महिलाएं खुद भी यही सोचने लगी है कि वो महीने के 5 दिन अछूत है।

शरीर की रचना का आधार धर्म कैसे बन सकता है? माहवारी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो हर औरत को होनी तय है तभी इस संसार का चक्र चल रहा है और उन्ही मुश्किल के दिनों में जब एक औरत को ढेर सारा प्यार ,सम्मान,और आराम मिलना चाहिए तभी उसके साथ ज़्यादती होती है, ये कैसा समाज है ? आज पूरी दुनिया मे वुमन्स डे मनाया जा रहा है ,क्या कभी किसी मे इतनी हिम्मत आएगी जब महिलाओं के उन 5 मुश्किल भरे दिनों को "पीरियड्स डे" कह कर मनाया जाएगा? शायद नहीं । हमारा समाज दोहरी मानसिकता का समाज है ,एक ओर तो माहवारी के वक्त महिलाओं को अलग करता है दूसरी ओर यही समाज अपने स्वार्थ के चलते या अपनी हवस के चलते माहवारी में सहवास करने की भी इजाज़त देता है, तब महिला अशुद्ध या अछूत नही होती? जबकि माहवारी की वक्त सहवास करने से संक्रमण का खतरा रहता है इसके बावजूद कई पुरुष अपनी पत्नी के साथ माहवारी के दौरान भी सहवास करते  हैं।




दरअसल माहवारी को लेकर समाज मे फैली कुरीतियों की जड़ आधा अधूरा ज्ञान है।जो महिलाओं के पतन का मुख्य कारण रहा है। हमारे वेद और शास्त्रों में लगभग सारी ही मान्यताएं किसी ना किसी वैज्ञानिक अवधारणा को लेकर बनी हैं । शुद्ध संस्कृत में लिखे वेदों को आधे अधूरे पाखंडियों ने अपने हिसाब से अनुवादित किया और कर्म या मान्यता को परिणाम से इसलिये जोड़ा गया ताकि जो लोग अशिक्षित थे वो भी परिणाम के भय से सही नियमों का पालन करे। पीरियड्स में महिलाओं से रसोई में कार्य ना करवाने के कई कारण थे। एक तो महिला उस समय शारीरिक और मानसिक कष्ट से गुजरती है और कुछ में तो चिड़चिड़ापन भी आ जाता है। कम से कम चार पाँच दिन तो महिला को थोड़ा आराम करने को मिल जाता था ।

दूसरे पहले सेनेटरी पैड जैसी सुविधा नहीं होती थी।कपड़े गन्दे हो जाते थे। रसोई में खाने पीने के सामान में हाथ ना लगे और स्वच्छता बनी रहे क्योंकि पहले रसोई में ही सिंक या घर में ही बाथरुम नहीं होते थे कि बार बार हाथ धोये जा सकें। पानी भी तालाब या कुओं से लाना पड़ता था अतः इतनी बार हाथ धोकर पानी व्यर्थ करने की स्थिति नहीं होती थी।

तीसरे महिला के कपड़े अगर खराब हो जायें और वो अंदर बाहर घूमती फिरे तो वो एक असामान्य सी हालत होती थी क्योंकि संयुक्त परिवार में बड़े बुजुर्ग,बच्चे सभी होते थे।

तीसरे अलग बिस्तर पर या जमीन पर चटाई बिछाकर सोने का भी यही कारण था कि सामान्य बिस्तर में सब बैठते या सोते हैं।यदि कहीं कोई दाग लग जाये तो अच्छा नहीं होता और फिर वही कि घरों में वाशिंग मशीन तो होती नहीं थी कि उठाया मशीन में डाला टाइमर सेट किया और चकाचक कपड़े धुलकर तैयार।



और भी बहुत सी धारणाएं हैं जिनका वैज्ञानिक कारण है और ऋषि मुनियों ने उसे इसीलिये परिणाम से जोड़ दिया ताकि स्वेच्छा से ना सही तो डर से लोग उसका पालन करें। जैसे स्वर्ग या नरक किसने देखे हैं किन्तु मनुष्य को बुरे कर्मों से दूर रखने के लिये और सामाजिक व्यवस्था को सुचारू बनाये रखने के लिये स्वर्ग नरक का सिद्धांत अपनाना पड़ा।

अब रही बात इस तरह की ढोंगियों की तो आज के परिपेक्ष्य में इस तरह की बातें मानसिक दिवालियापन के सिवाय कुछ नहीं  अगर ऐसे ढोंगी ये ढोंग नही रचेंगे तो इन बाबाओ की दुकानें कैसे चलेंगी? क्या ये सब ढोंगी बाबा माँ की कोख़ से पैदा नही हुए है ? इन्ही बाबाओं को अगर रात के अंधेरे में कोई महिला दिख जाए जो माहवारी के दौर से गुज़र रही हो तो क्या होगा? जवाब आप जानते हैं ।

महिलाओं को समर्पित "वुमन्स डे" मना रहे हो,आज जिन महिलाओं की माहवारी हो रही होगी उनसे पूछिये तो जाकर, कैसा वुमन्स डे? जब आज भी वो अछूत हैं ।