आवाज़ संपादकीय:सुप्रीम फैसले पर राष्ट्रपति ने दागे चौदह सवाल!संविधान में संशोधन या कानून निर्माण की शक्तियां सुप्रीम कोर्ट को प्राप्त नहीं,एक गलत को दूसरे गलत से सही नहीं किया जा सकता

सुप्रीम फैसले पर राष्ट्रपति ने दागे चौदह वाजिब सवाल
भारत के संविधान का स्वरूप गणतंत्रीय और ढांचा संघीय है। संविधान भारत की राजव्यवस्था के तीन प्रमुख अंगों-कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की स्थापना करता है साथ ही उनकी शक्तियों और अधिकारों को परिभाषित भी करता है। संविधान में 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां है। भारतीय संविधान में कुछ कमियां और चुनौतियां हैं,ये तभी दिखाई देती है जब देश में कोई बड़ा मामला सामने आता है। हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 8 अप्रैल को दिए एक फैसले पर चौदह सवाल खड़े किए हैं जो कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों के लिए बड़ी चुनौती है।
दरअसल राज्यपाल के अधिकारों के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई मामला तमिलनाडु की सरकार और राज्यपाल के बीच कुछ विधेयकों को पारित करने को लेकर था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा था कि अनिश्चित समय के लिए राज्यपाल विधेयकों को रोक नहीं सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयक पारित करने की समयसीमा तय की थी। अब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के आर्टिकल 143 का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट से ही 14 सवाल पूछ लिए हैं। राष्ट्रपति के पूछे हुए सवाल, संविधान के आर्टिकल 200, 201,361, 143, 142, 145(3) और 131 से जुड़े हैं। ये सवाल क्या है पहले ये जान लेते हैं।
पहला सवाल अनुच्छेद 200 से जुड़ा है,जो कि राज्यपाल को बिल पर निर्णय लेने की शक्ति प्रदान करता है,इसी अनुच्छेद का हवाला देते हुए राष्ट्रपति ने सवाल किया है बिल आने के बाद राज्यपाल के पास कौन-कौन से संवैधानिक विकल्प होते हैं?
दूसरा सवाल भी अनुच्छेद 200 से जुड़ा है कि क्या ये जरूरी है कि फैसले के समय राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानें?
तीसरा सवाल राज्यपाल के विवेक पर आधारित है कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल जो भी फैसले लेते हैं क्या उनकी न्यायिक समीक्षा हो सकती है?क्या कोर्ट में राज्यपाल के फैसले को चैलेंज किया जा सकता है?
चौथा सवाल अनुच्छेद 361 से जुड़ा है जो कि राष्ट्रपति और राज्यपाल को कुछ मामलों में कानूनी कार्रवाई से सुरक्षा देता है। राष्ट्रपति ने सवाल किया है कि क्या कोर्ट अनुच्छेद 361 के जरिए राज्यपाल के फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को रोक सकता है?
पांचवां सवाल राष्ट्रपति ने पूछा कि संविधान में अगर राज्यपाल के लिए समयसीमा तय नहीं है तो क्या कोर्ट ये तय कर सकती है?राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग कैसे करना चाहिए?
छठा सवाल अनुच्छेद 201 से जुड़ा है राष्ट्रपति ने सवाल किया है कि क्या कोर्ट में राष्ट्रपति के फैसलों को चैलेंज कर सकते हैं?
चूंकि संविधान में राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग के लिए कोई समय सीमा नहीं दी गई है। इसीलिए महत्वपूर्ण सातवां सवाल राष्ट्रपति ने पूछा कि क्या कोर्ट राष्ट्रपति के फैसलों की समयसीमा तय कर सकता है?
आठवां सवाल अनुच्छेद 143 से जुड़ा है,जिस पर राष्ट्रपति ने सवाल किया है कि क्या ये जरूरी है कि राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट की राय ले जब राज्यपाल किसी बिल को राष्ट्रपति की सहमति के लिए आरक्षित करते हैं?
नौंवा सवाल न्यायिक समीक्षा से जुड़ा है। राष्ट्रपति ने इस पर सवाल किया कि क्या कोर्ट राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों पर कानून लागू होने से पहले ही सुनवाई कर सकता है? क्या कानून बनने से पहले ही राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसले न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकते हैं
दसवां सवाल अनुच्छेद 142 से जुड़ा है,जो कि अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को व्यापक शक्तियां देता है। राष्ट्रपति ने सवाल किया है कि क्या अनुच्छेद 142 के जरिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के कार्यों और आदेशों को बदला जा सकता है?
ग्यारहवां सवाल राज्यपाल की सहमति से जुड़ा है।राष्ट्रपति ने सवाल पूछा है कि क्या राज्यपाल की अनुमति के बिना विधानसभा से पारित कोई भी कानून लागू हो सकता है?
बारहवां सवाल अनुच्छेद 145(3) से जुड़ा है यह अनुच्छेद कहता है कि संविधान की व्याख्या से जुड़े महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई कम से कम पांच जजों की बेंच द्वारा की जानी चाहिए। इस अनुच्छेद के तहत राष्ट्रपति ने सवाल किया है कि क्या सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को संविधान की व्याख्या से जुड़े मामले भेजना जरूरी है? क्या सुप्रीम कोर्ट की किसी भी बेंच के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि मामला संविधान की व्याख्या से जुड़ा है या नहीं?
तेरहवां सवाल अनुच्छेद 142 से जुड़ा है जो सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों से संबंधित है, राष्ट्रपति ने सवाल किया है क्या कोर्ट ऐसे आदेश दे सकती है जो संविधान या कानून के मौजूदा प्रावधानों के विपरीत हों?
चौदहवां सवाल क्या संविधान सुप्रीम कोर्ट को केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद को सुलझाने से रोकता है , सिवाय अनुच्छेद 131 के तहत मुकदमे के?
ये सवाल वाजिब इसीलिए है क्योंकि विधेयकों को लंबित रखना एक अलग मुद्दा है जबकि संविधान में जो प्रावधान है ही नहीं उसकी व्याख्या करके नए प्रावधान बना देना एक बड़ी गलती है जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जाहिर होती है।
*एक गलत को दूसरे गलत से सही नहीं ठहराया जा सकता*
राष्ट्रपति ने जो 14 सवाल पूछे हैं वो ये बताने के लिए काफी है कि एक गलती को दूसरी गलती से सही नहीं माना जा सकता।
दरअसल संविधान की एक खामी अनुच्छेद 200 में है, जिसमें राज्यपाल द्वारा विधान सभा द्वारा भेजे गए विधेयकों को मंजूरी देने के लिए कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है यानी संविधान में इस बात का जिक्र नहीं है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल के पास बिल कितने दिन लंबित रहेगा। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों जस्टिस जेबी पादरीवाला और जस्टिस आर महादेवन की दो सदस्यीय बेंच ने 8 अप्रैल को दिए अपने फैसले में कहा था कि विधेयक पर फैसला तीन महीने के अंदर नहीं लिया गया तो राष्ट्रपति को इसके पीछे का उचित तर्क बताना होगा। जबकि संविधान में अनुच्छेद 200 में ऐसी कोई समय सीमा निर्धारित ही नहीं है तो राष्ट्रपति का पांचवां सवाल इस लिहाज से तो उचित ही है। संविधान में विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय सीमा निर्धारित ही नहीं है तो ये खामी तो संविधान की हुई,इस खामी की वजह से ही तमिलनाडु सरकार के विधेयक पारित मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 की असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हुए राज्यपाल की अनुमति के बगैर ही विधेयकों को मंजूरी दे दी।
*संविधान में संशोधन या कानून निर्माण की शक्तियां सुप्रीम कोर्ट को प्राप्त नहीं*
इतिहास में झांक कर देखें तो सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 143 पर अपनी सहूलियत के मुताबिक राय देता है और राय नहीं भी देता। राय देना या न देना मामले पर निर्भर करता है। इसी सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली लॉज एक्ट 1951 पर अपनी राय दी थी लेकिन नरसिंह राव की सरकार के समय अयोध्या में राम मंदिर मामले में सरकार के रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐतिहासिक और पौराणिक तथ्यों के मामलों में राय देना अनुच्छेद 143 के दायरे में नहीं आता। इसी सुप्रीम कोर्ट ने केरल शैक्षणिक बिल 1957 पर रेफरेंस को संवैधानिक रूप से न केवल व्याख्यायित किया बल्कि अपनी महत्वपूर्ण राय भी दी थे,लेकिन जब बात कावेरी जल विवाद की थी तब इस मामले के रेफरेंस पर सुप्रीम कोर्ट ने राय देने से मना कर दिया था। 2002 में भी गुजरात चुनाव पर सुप्रीम कोर्ट ने अपील या पुनर्विचार याचिका दायर करने की बजाय 143 से रेफरेंस भेजने के विकल्प को संवैधानिक रूप से गलत बताया था। ऐसे तमाम मामले हैं जिन पर अपनी सहूलियत या अपनी इच्छा के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने राय देने या न देने का निर्णय लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान में जो प्रावधान लिखा ही नहीं है उस पर फैसला सुना दिया जबकि सुप्रीम कोर्ट को संविधान में संशोधन करने या कानून निर्माण की शक्ति प्राप्त नहीं है,संविधान में संशोधन करने की शक्ति भारतीय संसद के पास है,विशेष रूप से अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान में संशोधन करने के लिए एक विशेष प्रक्रिया का पालन करती है, जिसमें एक संशोधन विधेयक को दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) द्वारा विशेष बहुमत से पारित किया जाना होता है।संविधान संशोधन प्रक्रिया को कुछ मामलों में ही राज्य विधानसभाओं की सहमति भी चाहिए होती है। संविधान में नया कानून बनाने की शक्ति भी भारत की संसद के पास ही है,सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं। सरकार की गलतियों पर सुप्रीम कोर्ट हस्तक्षेप कर सकती है इसके लिए जजों को सरकार के संरक्षक के तौर पर देखा जा सकता है लेकिन संविधान में बदलाव करने की शक्ति सुप्रीम कोर्ट को नहीं है। ये सीधे तौर पर न्यायपालिका का कार्यपालिका के साथ टकराव करना है।
इधर अब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बदल गए हैं। जस्टिस बीआर गवई ने बीते बुधवार को देश के प्रधान न्यायाधीश (CJI) पद की शपथ ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से 14 सवालों के जरिए उसके 8 अप्रैल के फैसले पर स्पष्टीकरण मांगा है। राष्ट्रपति द्वारा किए गए सवाल सुप्रीम कोर्ट को इशारा कर रहे है कि किसी भी राज्य के मामलों के समाधान संवैधानिक रूप से होने चाहिए जिसमें न्यायिक हस्तक्षेप संविधान के विरुद्ध है। अब राष्ट्रपति के सवालों पर सुप्रीम कोर्ट क्या प्रतिक्रिया देगा ये देखना दिलचस्प होगा।