खातड़(रजाई)ओढ़ने की शुरुवात का दिन खतडुवा !

सितम्बर के जाते-जाते और अक्टूबर के आने से पहले हल्की-हल्की सर्दी की आहट आने लगती है,ठंडी हवाएं चलना शुरू कर देती हैं,सर्दी की ये आहट उत्तराखंड के पहाड़ो में खतडुवा के नाम से भी जानी जाती है।खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति “खातड़” या “खातड़ि”शब्द से हुई है,जिसका अर्थ है रजाई या अन्य गरम कपड़े।  
भाद्रपद की शुरुआत (सितम्बर मध्य) से पहाड़ों में जाड़ा धीरे-धीरे शुरु हो जाता है।यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं।इस तरह यह त्यौहार वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का परिचायक है।इस त्यौहार के दिन गांवों में लोग अपने पशुओं के गोठ (गौशाला) को विशेष रूप से साफ करते हैं।पशुओं को नहला-धुला कर उनकी खास सफाई की जाती है और उन्हें पकवान बनाकर खिलाया जाता है।पशुओं के गोठ में मुलायम घास बिखेर दी जाती है।शीत ऋतु में हरी घास का अभाव हो जाता है,इसलिये “खतड़ुवा” के दिन पशुओं को भरपेट हरी घास खिलायी जाती है।शाम के समय घर के सयाने लोग खतड़ुवा (एक छोटी मशाल) जलाकर उससे गौशाला के अन्दर लगे मकड़ी के जाले वगैरह साफ करते हैं और पूरे गौशाला के अन्दर इस मशाल (खतड़ुवा) को बार-बार घुमाया जाता है,और भगवान से कामना की जाती है कि वो इन पशुओं को दुख-बीमारी से सदैव दूर रखे।गांव के बच्चे किसी चौराहे पर जलाने लायक लकड़ियों का एक बड़ा ढ़ेर लगाते हैं,गौशाला के अन्दर से मशाल लेकर महिलाएं, बच्चे, पुरुष सभी इस चौराहे पर पहुंचते हैं,और इस लकड़ियों के ढेर में “खतड़ुआ” समर्पित किये जाते हैं। "लकड़ियों के इस ढेर" को पशुओं को लगने वाली बीमारियों का प्रतीक मानकर “बीमारियों” को जलाया जाता है।गाय-भैंस और बैल जैसे पशुओं को लगने वाली बीमारियों में खुरपका और मुंहपका मुख्य हैं,इस चौराहे या ऊंची जगह पर आकर सभी खतड़ुआ को जलाते हैं और बच्चे जोर-जोर से चिल्लाते हुए गाते हैं-
भैल्लो जी भैल्लो, भैल्लो खतडुवा,
गै की जीत,खतडुवै की हार भाग खतड़ुवा भाग
अर्थात गाय की जीत हो और खतड़ुआ (पशुधन को लगने वाली बीमारी की हार हो)