उत्तराखंड के इस पेड़ पर अंग्रेजी हुकूमत ने सैकड़ों लोगों को लटका कर दी थी फांसी, आज भी पूरी शान के साथ खड़ा है ये पेड़

Hundreds of people were hanged by the British government on this tree of Uttarakhand, even today this tree stands with full glory

रुड़की (इसरार मिर्ज़ा) I सन् 1857 क्रांति के स्वतंत्रता संग्राम में हजारों लोगों ने देश के नाम हंसते-हंसते अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। क्रांति की इस ज्वाला से रुड़की भी अछूती नहीं रही थी। यहां के किसानों व ग्रामीणों ने अंग्रेजी हुकूमत का कड़ा प्रतिवाद किया था,परिणाम स्वरूप सैकड़ों लोगों को यहां स्थित एक विशाल बूढ़े बरगद पर लटका कर फांसी दे दी गई थी।आजादी के शानदार विरासत को समेटे यह बूढ़ा बरगद (वटवृक्ष)आज भी पूरी शान के साथ खड़ा है। स्वतंत्रता के तमाम राजनीतिक दावों के बावजूद देश प्रेमियों की यह पवित्र पूजनीय स्थल उपेक्षित रहने के बाद अब एक शानदार शहीद स्मारक के रूप में स्थापित हो चुका है,जो रुड़की वासियों के अदम्य साहस और देश प्रेम की कथा कहता यह विशाल वटवृक्ष ग्राम सुनहरा रोड पर स्थित है। बताया जाता है कि सन् 1857 में जब स्थानीय किसानों,ग्रामीणों,गुर्जरों एवं झोजों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ संघर्ष का झंडा बुलंद किया तो अंग्रेजों के हाथ पांव फूल गए। इस दौरान बहुत सारे अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया। आजादी के मतवालों को सबक सिखाने के लिए तब अंग्रेजों ने इलाके में कत्लेआम का वह तांडव मचाया,जिसकी कहानियां आज भी कही और सुनी जाती है। ग्राम मतलबपुर व रामपुर से निर्दोषों को पकड़ कर भी इस वटवृक्ष पर फांसी पर लटकाया गया। 

आपको बता दें दस मई अट्ठारह सौ सत्तावन को सौ से ज्यादा क्रांतिकारियों को इस वट वृक्ष पर लटका कर फांसी दी गई। इस दिन हर साल स्थानीय लोग यहां शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए बड़ी संख्या में जुटते हैं। बताया जाता है कि सहारनपुर एवं रुड़की में ब्रिटिश छावनी होने के कारण यह जरूरी था कि इस जगह पर शांति रहे,ताकि विद्रोह की हालत में सेना व अन्य स्थानों पर आसानी से पहुंच सके। जन आंदोलन को कुचलने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने इसलिए भी सैकड़ों देशभक्तों को फांसी पर लटका कर शांति कायम करने की कोशिश की,हालांकि वे अपने इन मंसूबों में कभी कामयाब नहीं हो सके। स्वतंत्रता सेनानी स्वर्गीय हकीम मोहम्मद यासीन के बेटे डॉक्टर मोहम्मद मतीन बताते हैं कि अपने पिता से उन्होंने अंग्रेजी जुल्म और देशवासियों के बलिदान की गाथा सुनी जो आज भी उनके मन में रह-रह कर उनको इन घटनाओं की याद ताजा कर आती रहती हैं,वहीं स्थानीय निवासी स्वर्गीय रवि मोहन मंगल के दादा स्वर्गीय ललिता प्रसाद ने सन् 1910 में इस वटवृक्ष के आसपास की जमीन को खरीद कर इसे आबाद किया था। शहीद यादगार कमेटी के अध्यक्ष डॉक्टर मोहम्मद मतीन बताते हैं कि वटवृक्ष के नीचे शहीद हुए आजादी के दीवानों की याद में 10 मई 1957 को स्वतंत्र भारत में पहली बार विशाल सभा तत्कालीन एसडीएम बीएस जुमेल की अध्यक्षता में हुई,जिसमें शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की गई। उसी दौरान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी हकीम मोहम्मद यासीन की अध्यक्षता में शहीद यादगार कमेटी का भी गठन किया गया था।