थी खून से लथपथ काया,फिर भी बंदूक उठाके,दस-दस को एक ने मारा!कुमाऊं रेजिमेंट के मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में लड़ा 1962 का वो युद्ध जिसमे बर्फ से निकले थे सीने में गोली खाये सैनिकों के शव!गौरवशाली इस इतिहास को ज़रूर पढ़े
थी खून से लथपथ काया
फिर भी बंदूक उठाके
दस-दस को एक ने मारा
फिर गिर गए होश गंवा के
उनका नाम भले ही शैतान सिंह था लेकिन उनकी शौर्यगाथा आज भी उत्तराखंड के कुमाऊं रेजिमेंट में गर्व से सुनाई जाती है। 1962 का युद्ध भले ही हम हार गए थे लेकिन कुमाऊं रेजिमेंट के मेजर शैतान सिंह और उनकी अहीर कम्पनी ने चीनी सेना के दांत खट्टे कर दिए थे।
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि 1962 का युद्ध जब खत्म हुआ और युद्ध स्थल से बर्फ पिघलने लगी तो शहीद हुए कई भारतीय सैनिकों का पार्थिव शरीर युद्ध मुद्रा में नज़र आये,इनमें से किसी की भी पीठ पर गोली नही लगी थी,सभी के सीने छलनी हुए थे यानी युद्ध मे हर सैनिक ने निडर होकर युद्ध लड़ा था और मां भारती के लिए सीने में गोली खा कर जान न्योछावर की थी। इन्ही रणबांकुरों में से एक थे मेजर शैतान सिंह। मेजर सिंह के नेतृत्व में ही ये युद्ध लड़ा गया था।
नवंबर की सर्द हवाएं, बर्फीला मौसम शून्य से भी कम तापमान में खून जमा देने वाली ठंड के बीच देश के लिए युद्ध लड़ना आसान नही था। 17 हज़ार फिट की ऊंचाई पर जहा युद्ध लड़ने का कोई अनुभव न हो और सामने से सेल्फ लोडिंग राइफल्स, असलाह, और बमो से लैस होकर दुश्मन की सेना खड़ी हो। इधर भारतीय सेना के पास महज थोड़ा सा गोला बारूद, आउट डेटेड थ्री नॉट थ्री की बंदूकें।चार्ली कंपनी की कमान मेजर शैतान सिंह के हाथ में थी और सभी जवान 3 पलटन में अपनी-अपनी पोजिशन पर थे. भारत-चीन युद्ध के दौरान ये इकलौता इलाका था, जो भारत के कब्जे में था. LAC पर काफी तनाव था और सर्द मौसम की मार अलग पड़ रही थी. पर जवान मुस्तैदी से सीमा की सुरक्षा में खड़े थे।
दुश्मन सामने और कमांडर ऑफिसर ने तुरंत कोई सैन्य मदद दे पाने में अपनी असमर्थता जता दी,ऐसी विपरीत परिस्थितियों में मेजर शैतान सिंह ने पीछे हटने की बजाय युद्ध करना ज़्यादा उचित समझा,जबकि कमांडर ऑफिसर ने कहा था चाहे तो चौकी छोड़कर पीछे हट सकते है। मेजर शैतान सिंह की बहादुरी और उनके नेतृत्व में सेना आगे बढ़ी और डटकर मुकाबला किया। मेजर शैतान सिंह और उनके के आदेश पर सेना इस तरह लड़ी की चीनी सेना को ये तक कहना पड़ गया कि" हमे सबसे ज्यादा नुकसान अब यही होने वाला है।"
आइये जानते है इस युद्ध की पूरी कहानी।
18 नवंबर की सुबह करीब साढ़े तीन बजे भारतीय सैनिकों ने चीन की तरफ से रोशनी का कारवां आते देखा. धीरे-धीरे रोशनी उनके नजदीक आ रही थी. फायरिंग रेंज में आते ही जवानों ने गोलियां दागनी शुरू कर दी. लेकिन, कुछ देर बाद दुश्मन और नजदीक आया तो उसकी चाल का पता चला. दरअसल, चीनी टुकड़ी की पहली कतार में याक और घोड़े थे, जिनके गले में लालटेन लटकी थीं. सारी गोलियां उन्हें छलनी कर गईं, जबकि चीनी सैनिकों को एक भी बुलेट नहीं लगी. चीनियों को भारतीय जवानों के पास कम असलहा बारूद होने की बात पता थी. इसलिए उनकी कोशिश थी कि भारत के हथियार खत्म कर दिए जाएं, ताकि आसानी से कब्जा हो सके. लेकिन दुश्मन को भारत मां के लिए कुर्बान होने वाले सैनिकों के जोश का अंदाजा बिल्कुल नहीं था. सुबह करीब 4 बजे सामने से फायर आए. 8-10 चीनी सिपाही एक पलटन के सामने आए तो हमारे जवानों ने 4-5 चीनियों को मार गिराया, बाकी भाग गए।
उधर, 7 पलटन के एक जवान ने संदेश भेजा कि करीब 400 चीनी उनकी पोस्ट की तरफ आ रहे हैं. तभी 8 पलटन ने भी मेसेज भेजा कि रिज की तरफ से करीब 800 चीनी सैनिक आ रहे हैं. मेजर शैतान सिंह को ब्रिगेड से आदेश मिल चुका था कि युद्ध करें या चाहें तो चौकी छोड़कर लौट सकते हैं. पर उन्होंने पीछे हटने से मना कर दिया. मतलब किसी भी तरह की सैन्य मदद की गुंजाइश नहीं थी. इसके बाद मेजर ने अपने सैनिकों से कहा अगर कोई वापस जाना चाहता है तो जा सकता है. पर सारे जवान अपने मेजर के साथ थे।
रणनीति बनाई गई कि फायरिंग रेंज में आने पर ही दुश्मन पर गोली चलाई जाए. मेजर हर पलटन के पास जाकर एक-एक जवान का हौसला बढ़ा रहे थे. कुछ देर की गोलीबारी के बाद शांति छा गई. 7 पलटन से संदेश मिला कि हमने चीनी सैनिकों को खदेड़ दिया है और सभी जवान सुरक्षित हैं. तभी चीनियों का एक गोला भारतीय बंकर में आकर गिरा. मेजर ने मोर्टार दागने को कहा. चीनी कुछ देर के लिए पीछे हट गए. इसके बाद दुश्मन ने भारतीय चौकियों पर एक साथ गोलाबारी शुरू कर दी. हथियार धीरे-धीरे और कम हो रहे थे तो मेजर ने जवानों से कहा कि एक फायर पर एक चीनी को मार गिराओ और उनकी बंदूक हथिया लो. हमारे जवान फिर से चीनियों पर भारी पड़ने लगे तो वे दोगुनी ताकत के साथ अधिक संख्या में लौटे।
मेजर शैतान सिंह की बांह में शेल का टुकड़ा लगा. एक सिपाही ने उनके हाथ में पट्टी बांधी और आराम करने के लिए कहा. पर घायल मेजर ने मशीन गन मंगाई और उसके ट्रिगर को रस्सी से अपने पैर पर बंधवा लिया. उन्होंने रस्सी की मदद से पैर से फायरिंग शुरू कर दी. तभी एक गोली मेजर के पेट पर लगी. उनका बहुत खून बह गया था और बार-बार उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था. लेकिन जब तक उनके शरीर में खून का एक भी कतरा था, तब तक वो दुश्मन को कहां बख्शने वाले थे.
वो टूटती सांसों के साथ दुश्मन पर निशाना साधते रहे और सूबेदार रामचंद्र यादव को नीचे बटालियन के पास जाने को कहा, ताकि वो उन्हें बता सके कि हम कितनी वीरता से लड़े. मगर सूबेदार अपने मेजर को चीनियों के चंगुल में नहीं आने देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शैतान सिंह को अपनी पीठ पर बांधा और बर्फ में नीचे की ओर लुढ़क गए. कुछ नीचे आकर उन्हें एक पत्थर के सहारे लेटा दिया।
करीब सवा आठ बजे मेजर ने आखिरी सांस ली. सूबेदार रामचंद्र ने हाथ से ही बर्फ हटाकर गड्ढा किया और मेजर की देह को वहां डालकर उसे बर्फ से ढक दिया. कुछ समय बाद युद्ध खत्म हुआ तो इस इलाके को नो मैन्स लैंड घोषित किया गया।