ज्ञानवापी मस्जिद या मंदिर? ब्रिटिश फोटोग्राफर सैमुअल बॉर्न ने 154 वर्ष पहले खींची थी ये दुर्लभ तस्वीरें! हिंदू पक्ष के दावों को मजबूत करती ये तस्वीरें रखी है अमेरिका के ह्यूस्टन स्थित म्यूजियम में!

Gyanvapi Mosque or Temple? British photographer Samuel Bourne took these rare pictures of Gyanvapi 154 years ago! Strengthening the claims of the Hindu side, these pictures have been kept in the muse

बहुचर्चित ज्ञानवापी मस्जिद पहले मंदिर था या नही,ज्ञानवापी के भीतर वजुखाने में शिवलिंग ही है या नही ये फ़िलहाल विवाद कोर्ट में लंबित है। इसी बीच मीडिया में ब्रिटिश फोटोग्राफर सैम्युल बॉर्न की 154 वर्ष पहले ज्ञानवापी परिसर की खींची हुई कुछ फोटोज वायरल हो रही है जो हैरान कर देने वाली है। ये इमेजेस आपको गिट्टी इमेज, गूगल में आराम से मिल जाएंगी। 


ये फोटोज सैम्युल ने 1868 में ली थी,जिसमे साफ दिखाई दे रहा है कि ज्ञानवापी परिसर के भीतर नंदी और भगवान हनुमान की मूर्ति,दीवारों पर सनातन संस्कृति की शिल्पकृति और घण्टा लगा हुआ है। ये फोटोज मीडिया में वायरल होने के बाद ज्ञानवापी मुद्दे में हिंदू संगठनों का विश्वास और मजबूत होने लगा है। उनका कहना है कि ज्ञानवापी मंदिर था और वहाँ नंदी की मूर्ति के सामने शिवलिंग है इन दावों पर 154 वर्ष पुरानी ये तस्वीरे मुहर लगा रही है। 


आपको बता दें कि ब्रिटिश फोटोग्राफर सैम्युल बॉर्न करीब 7 वर्ष 1863 से 1870 तक भारत मे रहे थे उन्होंने ऐतिहासिक मंदिरों इमारतों इत्यादि पर गहन रिसर्च की थी। वर्तमान में ये तस्वीरे अमेरिका के ह्यूस्टन स्थित द म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स में रखी हुई है,और ये सभी तस्वीरे हिंदू पक्ष के दावों को और मजबूत करती दिखाई दे रही है।

आइये अब जानते है ज्ञानवापी को लेकर कब कब मुकदमे हुए और उनमें कौन जीता कौन हारा?

वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर को लेकर सबसे पहला मुकदमा 1936 में दीन मोहम्मद बनाम राज्य सचिव का था. तब दीन मोहम्मद ने निचली अदालत में याचिका दायर कर ज्ञानवापी मस्जिद और उसकी आसपास की जमीनों पर अपना हक बताया था. अदालत ने इसे मस्जिद की जमीन मानने से इनकार कर दिया था.

- इसके बाद दीन मोहम्मद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की. 1937 में हाईकोर्ट ने मस्जिद के ढांचे को छोड़कर बाकी सभी जमीनों पर वाराणसी के व्यास परिवार का हक जताया और उनके पक्ष में फैसला दिया. बनारस के तत्कालीन कलेक्टर का नक्शा भी इस फैसले का हिस्सा बना, जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने का मालिकाना हक व्यास परिवार को दिया गया.हालांकि, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव खालिद सैफुल्लाह रहमानी का दावा है कि उस फैसले में कोर्ट ने गवाही और दस्तावेजों के आधार पर फैसला दिया था कि पूरा परिसर (ज्ञानवापी मस्जिद कॉम्प्लेक्स) मुस्लिम वक्फ का है और मुस्लिमों को यहां नमाज पढ़ने का अधिकार है.

- रहमानी का दावा है कि उस फैसले में कोर्ट ने मंदिर और मस्जिद का क्षेत्रफल भी तय कर दिया था. इसके अलावा अदालत ने वजूखाने को मस्जिद की संपत्ति माना था. इसी वजूखाने में अब हिंदू पक्ष शिवलिंग मिलने का दावा कर रहा है.

1991 में फिर अदालत पहुंचा मामला

- इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद 1937 से 1991 तक ज्ञानवापी परिसर को लेकर कोई विवाद नहीं हुआ. 15 अक्टूबर 1991 में ज्ञानवापी परिसर में नए मंदिर निर्माण और पूजा पाठ की इजाजत को लेकर वाराणसी की अदालत में याचिका दायर की गई.

- ये याचिका काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहितों के वंशज पंडित सोमनाथ व्यास, संस्कृत प्रोफेसर डॉ. रामरंग शर्मा और सामाजिक कार्यकर्ता हरिहर पांडे ने दाखिल की. इनके वकील थे विजय शंकर रस्तोगी.

- याचिका में तर्क दिया गया कि काशी विश्वनाथ का जो मूल मंदिर था, उसे 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था. 1669 में औरंगजेब ने इसे तुड़वाकर यहां मस्जिद बनवा दी. 


- इस याचिका पर सिविल जज (सीनियर डिविजन) ने दावा चलने का आदेश दिया. इसे दोनों पक्षों ने सिविल रिविजन जिला जज के सामने चुनौती दी गई. अदालत ने सिविल जज के फैसले को निरस्त कर दिया और पूरे परिसर के सबूत जुटाने का आदेश दिया.

- इसके बाद ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने वाली अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंच गई. कमेटी ने दलील दी कि इस मामले में कोई फैसला नहीं लिया जा सकता, क्योंकि प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट के तहत इसकी मनाही है. हाईकोर्ट ने जिला जज के फैसले पर रोक लगा दी.

इस ज्ञानवापी परिसर को लेकर दो मामले- 1936 में सबसे पहले दीन मोहम्मद वर्सेस सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का एक मामला है, जिसमें दीन मोहम्मद ने ज्ञानवापी मस्जिद और उसके आसपास की जमीनों पर अपना हक जताया था. इसका मूवी मुकदमा नंबर 62/ 1936 जोकि एडिशनल सिविल जज बनारस के यहां दाखिल हुई थी, तब की अदालत ने इसे मस्जिद की जमीन मानने से इनकार कर दिया. उसके बाद दीन मोहम्मद यह केस लेकर इलाहाबाद हाई कोर्ट गए और 1937 में जब फैसला आया तब हाई कोर्ट ने मस्जिद के ढांचे को छोड़कर बाकी सभी जमीनों पर व्यास परिवार का हक बताया और उनके पक्ष में फैसला दिया.

इसी फैसले में बनारस के तत्कालीन कलेक्टर का वह नक्शा भी फैसले का हिस्सा बनाया गया है जिसमें ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने का मालिकाना हक व्यास परिवार को दिया गया है. तब से आज तक व्यास परिवार ही ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे के तहखाना का देखरेख करता है, वहां पूजा करता है और प्रशासन के अनुमति से वही तहखाने को खोल सकता है .आज भी उसमें मंदिर के ढेरों सामान रखे गए हैं.

1937 के इस फैसले में ही इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक नक्शा भी लगाया और उस नक्शे में बकायदा डॉटेड लाइंस के साथ मस्जिद की सीमा रेखा तय की और उसके अलावा बाकी चारों तरफ की जमीन का फैसला विश्वनाथ मंदिर के व्यासपठ के महंत व्यास परिवार पक्ष में दिया. तब से ही मस्जिद की अपनी सीमा थी, जबकि बाकी आसपास की पूरी जमीन को व्यास परिवार को दे दिया गया. 1937 के बाद 1991 तक इस मामले में कोई विवाद नहीं हुआ.
व्यास परिवार और उनके वकील के पास पिछले पौने दो सौ साल से लड़े गए मुकदमों की फेहरिस्त और फाइलों का पुलिंदा है. 1937 का मुकदमा दीन मोहम्मद का मुकदमा बाबा विश्वनाथ और ज्ञानवापी मस्जिद के बीच का सबसे अहम मुकदमा माना जाता है. इस मुकदमे की सुनवाई हाई कोर्ट तक चली, जिसमें हाई कोर्ट ने बहुत सारी बातें साफ कर दीं. यानी ढांचागत मस्जिद को छोड़कर तमाम जमीने व्यास परिवार की और बाबा विश्वनाथ मंदिर की होगी. मस्जिद के अलावा आसपास की किसी जमीन पर न तो नमाज हो सकेगी ना ही उर्स या फिर जनाजे की नमाज होगी.

साल 1937 से लेकर 1991 तक दोनों पक्षों में कोई विवाद नहीं हुआ. मुसलमान अपनी मस्जिद में जाते थे, जबकि हिंदू अपने मंदिरों में. हालांकि यह मस्जिद भी 1991 तक विरान ही पड़ी रही, जिसमें इक्के दुक्के मुसलमान ही नमाज अदा करते थे लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद से यहां अचानक नमाजियों की संख्या काफी बढ़ गई और तब से यहां हर रोज नमाज होती भी है.

1991 में व्यास परिवार की ओर से स्वामी सोमनाथ व्यास ने एक मुकदमा दर्ज कराया और उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद को 'आदि विशेश्वर मंदिर' कहते हुए इसे मंदिर को सौंपने का मामला दर्ज कराया. 1991 से लेकर यह मामला अभी तक चल रहा है और इसी मामले में सुनवाई करते हुए 1996 में पहली बार अदालत ने कोर्ट कमिशन बनाया था और पहला सर्वे 1996 में किया था.
इस मुकदमे में सोमनाथ व्यास की तरफ से विजय शंकर रस्तोगी वकील थे. बाद में सोमनाथ व्यास की मृत्यु के बाद वह वादी मित्र होकर इस मामले की पैरवी कर रहे हैं.

मस्जिद के ढांचे को मंदिर या मूल विश्वेश्वर मंदिर कहकर अदालत में याचिका लगाई गई तो उसमें कई तस्वीरें भी लगाई गईं. वह तमाम तस्वीरें उस विध्वंस किए गए ढांचे की हैं, जो मंदिर दिखाई देता है.

मंदिर के विध्वंस पर बनी मस्जिद की कई तस्वीरें अदालत में सुबूत के तौर पर संलग्न की गईं और उसी को देखते हुए साल 1996 में एक सर्वे कमीशन बनाया गया था. इस केस की सुनवाई के दौरान बनारस की अदालत ने इसमें एएसआई से खुदाई का आदेश दिया था जिसे फिलहाल हाई कोर्ट ने रोक लगा दी है लेकिन 10 मई को इस पर भी सुनवाई है.

एक एक कर वकील विजय शंकर रस्तोगी ने उन तमाम चित्रों को यूपी तक के साथ शेयर किया, जो तस्वीरें अदालत को सौंपी गई हैं और उन तस्वीरों में एक-एक कर यह दिखाया गया है कि कैसे जो ज्ञानवापी मस्जिद है, वह 'आदि विशेश्वर मंदिर' को तोड़कर बनाया गया है.
विजय शंकर रस्तोगी ने यूपी तक को वह नक्शा भी दिखाया, जो 1937 में तत्कालीन बनारस के डीएम ने अदालत में सौंपा था. जिस जमीन पर या जिस ढांचे पर आज ज्ञानवापी मस्जिद खड़ी है उस ढांचे का नक्शा पहली बार अदालत में पेश किया था और उस नक्शे में कई चीजें साफ-साफ लिखी हैं. मसलन यह पहला और एकमात्र ऐसा नक्शा है जो दिखाता है कि मंदिरनुमा कोई ढांचा रहा है जिसके बड़े हिस्से पर मस्जिद बनी है, बकायदा डॉटेड लाइन से इस नक्शे पर मस्जिद के हिस्से को दिखाया गया है.

उधर, इस मामले की पैरवी निचली अदालत से लेकर ऊपरी अदालत तक कर रहे हैं हरिशंकर जैन ने यूपी तक को बताया कि पूरा परिसर 'आदि विशेश्वर महादेव' का है और इसकी दीवारें मंदिर के खंडहर मंदिर के अवशेष देवी देवताओं की मूर्तियां और प्रतीक चिन्ह सीख-सीख कर बता रहे हैं कि मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई, इसलिए अब अदालती लड़ाई के जरिए वह आदि विशेश्वर मंदिर को मुक्त कराएंगे.
यही नहीं हरिशंकर जैन यह भी कहते हैं कि मुगलों के दौर में जिन-जिन हिंदू मंदिरों को तोड़कर मस्जिदों में तब्दील किया गया, अब अदालती लड़ाई के जरिए सुबूत के साथ उन्हें हासिल किया जाएगा.

यह तो हुए ऐतिहासिक और न्यायिक पहलू, एक इसका धार्मिक और पौराणिक पहलू भी है. काशी के विद्वान यह मानते रहे हैं कि स्कन्ध पुराण में जिस आदि विशेश्वर का जिक्र है वह यहीं स्थान है, यहां पर 103 फुट का शिवलिंग था जो कि इस मंदिर का मुख्य आदि विशेश्वर का शिवलिंग था और जब मुगलों ने इसे तोड़ा तो शिवलिंग को नीचे ही दफन कर दिया.


काशी के इतिहासकारों के मुताबिक, पांचवीं सदी के आसपास का बना हुआ यह मंदिर है, जिसे सबसे पहले कुतुबुद्दीन ऐबक ने तोड़ा था. हालांकि कुतुबुद्दीन ऐबक ने सिर्फ मंदिर का शिखर तोड़ा था जबकि अकबर के दौर में टोडरमल ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था, लेकिन फिरंग औरंगजेब के दौर में इस मंदिर को ध्वस्त करने का फरमान जारी हुआ और औरंगजेब का वह फरमान आज भी इतिहास में दर्ज है. औरंगजेब के फरमान के बाद इस आदि विशेश्वर मंदिर को तोड़ा गया था. माना यह जाता है कि आज भी विशेश्वर का मूल मंदिर उसी ढांचे के नीचे है.पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, 12 द्वादश लिंगों में आदि विशेश्वर का शिवलिंग सबसे ज्यादा मान्यता वाला शिव मंदिर था, क्योंकि कहा जाता है कि कैलाश छोड़ने के बाद खुद भगवान शंकर ने अपने को स्थापित किया था. यानी कि यह किसी के द्वारा स्थापित किया हुआ मंदिर नहीं था. ऐसी मान्यता है कि शिवलिंग खुद भगवान शिव का स्थापित किया हुआ था.